________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 67. उवादीतसेसेण वा संणिहिसि पिणचयो कज्जति इहमेगेसि माणवाणं भोयणाए। ततो से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पज्जति / / जेहि वा सद्धि संवसति ते व णं एगया णियमा पुब्धि परिहरंति, सो वा ते णियए पच्छा परिहरेज्जा। णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसि णालं ताणाए वा सरणाए वा। 67. (मनुष्य) उपभोग में आने के बाद बचे हुए धन से, तथा जो स्वर्ण एवं भोगोपभोग की सामग्री अजित-संचित करके रखी है उसको सुरक्षित रखता है / उसे वह कुछ गृहस्थों के भोग/भोजन के लिए उपयोग में लेता है। (प्रभूत भोगोपभोग के कारण फिर) कभी उसके शरीर में रोग को पीड़ा उत्पन्न होने लगती है। जिन स्वजन-स्नेहियों के साथ वह रहता आया है, वे ही उसे (रोग आदि के कारण घृणा करके) पहले छोड़ देते हैं। बाद में वह भी अपने स्वजन-स्नेहियों को छोड़ देता है। हे पुरुष ! न तो वे तेरी रक्षा करने और तुझे शरण देने में समर्थ हैं, और न तू ही उनकी रक्षा व शरण के लिए समर्थ है। आत्म-हित की साधना 68. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सातं / अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए खणं जाणाहि पंडिते! जाव सोतपण्णाणा अपरिहीणा जाव णेत्तपण्णाणा अपरिहीणा जाव घाणपण्णाणा अपरिहीणा जाव जोहपण्णाणा अपरिहीणा जाव फासपण्णाणा अपरिहोणा, इच्चेतेहि विरूवरूवेहि पण्णाणेहिं अपरिहीहि आयझें सम्म समणुवासेन्जासि त्ति बेमि / ॥पढमो उद्देसओ सम्मत्तो। 68. प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख-अपना-अपना है, यह जानकर (आत्मद्रष्टा बने। ___ जो अवस्था (यौवन एवं शक्ति) अभी बीती नहीं है, उसे देखकर, हे पंडित ! क्षण (समय) को अवसर को जान / जब तक श्रोत्र-प्रज्ञान परिपूर्ण है, इसी प्रकार नेत्र-प्रज्ञान, घ्राण-प्रज्ञान, रसना-प्रज्ञान, और स्पर्श-प्रज्ञान परिपूर्ण है, तब तक-इन नानारूप प्रज्ञानों के परिपूर्ण रहते हुए आत्म-हित के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्नशील बने / विवेचन--सूत्रगत--आयटुं--शब्द, आत्मार्थ-यात्म-हित के अर्थ में भी है और चूर्णि तथा टीका में 'पायतळं' पाठ भी दिया हैं / प्रायतार्थ अर्थात् ऐसा स्वरूप जिसका कहीं कोई अन्त या विनाश नहीं है-वह मोक्ष है। 1. 'उवातीतसेसं तेण' 'उवातीशेसेण'-ये पाठान्तर भी है। 3. आचा. शीलांक टीका पत्र 1.. 2. सन्निधि-दूध-दही आदि पदार्थ / सन्लिचय-चीनी वृत प्रादि-आयारो पृष्ठ 75 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org