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________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 64-66 'प्राण' का अर्थ रक्षा करने वाला है, तथा 'शरण' का अर्थ प्राश्रयदाता है / 'रक्षा' रोग आदि से प्रतोकात्मक है,-'शरण' आश्रय एवं संपोषण का सूचक है / आगामों में ताणं-सरणं' शब्द प्रायः साथ-साथ ही आते हैं। प्रमाद-परिवर्जन 65. इच्चेवं समुठ्ठिते अहोविहाराए। अंतरं च खलु इमं संपेहाए धोरे मुहत्तमवि णो पमादए / वओ अच्चेति जोवणं च / ' 65. इस प्रकार चिन्तन करता हुआ मनुष्य संयम-साधना (ग्रहोविहार) के लिए प्रस्तुत (उद्यत) हो जाये। इस जीवन को एक अंतर - स्वर्णिम अवसर समझकर धोर पुरुष मुहूर्त भर भी प्रमाद न करे- एक क्षण भी व्यर्थ न जाने दे। अवस्थाएँ (बाल्यकाल आदि) बीत रही हैं। यौवन चला जा रहा है। विवेचन-इस सूत्र में 'संयम' के अर्थ में 'अहोविहार' शब्द का प्रयोग हुआ है। मनुष्य सामान्यतः विषय एवं परिग्रह के प्रति अनुराग रखता है। वह सोचता है कि इसके बिना जीवन-यात्रा चल नहीं सकती 1 जब संयमी, अपरिग्रही अनगार का जीवन उसके सामने आता है, तब उसको इस धारणा पर चोट पड़ती है। वह आश्चर्यपूर्वक देखता है कि यह विषयों का त्याग कर अपरिग्रही बनकर भी शान्तिपूर्वक जीवन यापन करता है / सामान्य मनुष्य की दृष्टि में संयम-आश्चर्यपूर्ण जीवनयात्रा होने से इसे 'अहोविहार' कहा है / 66. जीवित इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुपित्ता विलुपित्ता उद्दवेत्ता उत्तासयिता, अकडं करिस्सामि त्ति मण्णमाणे / जेहिं वा सद्धि संवसति ते व णं एगया णियगा पुटिव पोसें ति, सो वा ते णियगे पच्छा पोसेज्जा / णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा,तुमं पि तेसिं गालं ताणाए वा सरणाए वा / 66. जो इस जीवन (विषय, कषाय आदि) के प्रति प्रमत्त है/ग्रासक्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, उपद्रव (जीव-वध) और उत्त्रास आदि प्रवृत्तियों में लगा रहता है। (जो आज तक किसी ने नहीं किया, वह) 'अकृत काम मैं करूँगा' इस प्रकार मनोरथ करता रहता है / जिन स्वजन आदि के साथ वह रहता है, वे पहले कभी (शैशव एवं रुग्ण व्यवस्था में) उसका पोषण करते हैं। वह भी बाद में उन स्वजनों का पोषण करता है। इतना स्नेह-सम्बन्ध होने पर भी वे (स्वजन) तुम्हारे त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं हैं / तुम भी उनको त्राण व शरण देने में समर्थ नहीं हो। 1. 'च' ग्रहणा जहा जोवणं तहा बालातिवया वि'--चूणि / 'च' शब्द से यौवन के समान बालवय का : अर्थ ग्रहण करना चाहिए। 2. प्राचा० टीका पत्रांक 97 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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