________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 74-75 संपेहाए-विविध प्रकार से चिन्तन करके, सपेहाए-किसी विचार के कारण/विचारपूर्वक / तीनों का अभिप्राय एक ही है / 'दंडसमादाण' का अर्थ है हिंसा में प्रवृत्त होना। 74. तं परिणाय मेहावी व सयं एतेहिं कज्जेहि दंडं समारंभेज्जा, णेव अण्णं एतेहिं कम्जेहि दंडं समारंभावेज्जा, गेवण्णे एतेहि कज्जेहि वंडं समारंभंते समणुजाणेज्जा। एस मग्गे आरिएहि पवेदिते जहेत्थ कुसले गोलिपेज्जासि ति बेमि / // बिइओ उद्देसओ सम्मत्तो। 74. यह जानकर मेधावी पुरुष पहले बताये गये प्रयोजनों के लिए स्वयं हिंसा न करे, दूसरों से हिंसा न करवाए तथा हिंसा करने वाले का अनुमोदन न करे। यह मार्ग (लोक-विजय का/संसार से पार पहुँचने का) आर्य पुरुषों नेतीर्थंकरों ने बताया है / कुशल पुरुष इन विषयों में लिप्त न हों। --ऐसा मैं कहता हूँ। . // द्वितीय उद्देशक समाप्त // तइओ उद्देसओ तृतीय उदेशक गोत्रवार-निरसन 75. से असई उच्चागोए, असई णीयागोए।' णो होणे, णो अतिरित्ते / णो पीहए। इति संखाए के गोतावादी? के माणावादी ? कंसि वा एगे गिज्ने ? तन्हा पंढिते गो हरिसे, जो कुज्झे। 75. यह पुरुष (आत्मा) अनेक बार उच्चगोत्र और अनेकबार नीच गोत्र को प्राप्त हो चुका है / इसलिए यहाँ न तो कोई हीन/नीच है और न कोई अतिरिक्त विशेष/उच्च है / यह जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करे। यह (उक्त तथ्य को) जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा ? कौन मानवादी होगा? और कौन किस एक गोत्र स्थान में आसक्त होगा? इसलिए विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न हो और नीच गोत्र प्राप्त होने पर कुपित/दुखी न हो। विवेचन-इस सूत्र में आत्मा की विविध योनियों में भ्रमणशीलता का सूचन करते हुए उस योनि/जाति व गोत्र आदि के प्रति अहंकार व हीनता के भावों से स्वयं को प्रस्त न करने की सूचना दी है। अनादिकाल से जो आत्मा कर्म के अनुसार भव-भ्रमण करती है, उसके लिए विश्व में कहीं ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ उसने अनेक बार जन्म धारण न किया हो / जैसे कहा है१. नागार्जुनीय वाचना का पाठ इस प्रकार है-'एगमेगे खलु नौवे अतीतद्धाए असई उच्चागोए असई गीयागोए करगट्टयाए णो होणे णो अतिरित्ते।' चणि एवं दीका में भी यह पाठ उद्धृत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org