________________ 282 माचारांग सूत्र-द्वितीय अतस्कन्ध 606. से कि पुण तत्थोग्गहंसि एवोगहियंसि ? जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समणुण्णा' उवागच्छेज्जा जे तेण सपमेसित्तए असणे वा 4 तेण ते साहम्मिया संभोइया समणुग्णा उवणिमंतेज्जा, णो चेव णं परपडियाए ओगिज्झिय 2 उवणिमंतेज्जा। 610. से आगंतारेसु वा जाव से कि पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि ? जे तत्थ साहम्मिया अण्णसंभोइया समणुग्णा उवागच्छेज्जा जे तेण सयमेसित्तए पीढे वा फलए वा सेज्जासंथारए वा तेण ते साहम्मिए अण्णसंभोइए समणुष्णे उणिमंतेज्जा, णो चेव गं परपडियाए ओगिहिय 2 उवणिमंतेज्जा। 611. से आगंतारेसु वा जाव से किं पुण तत्थोग्गहंसि एयोग्गहियं सि ? जे तत्थ गाहावतीण वा गाहावतिपुत्ताण वा सई वा पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा पहच्छेदणए वा तं अप्पणो एगस्स अट्ठाए पडिहारियं जाइत्ता णो अण्णमण्णस्स देज्ज वा अणुपवेज्ज वा, सयं करणिज्जं ति कट्ट, से तमादाए तत्थ गच्छेज्जा, 2 [त्ता] पुवामेव उत्ताणए हत्थे कट्ट, भूमीए वा ठवेत्ता इमं खलु इमं खलु त्ति आलोएज्जा, णो चेव णं सयं पाणिणा परपाणिसि पच्चपिज्जा। 608. साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहस्थ के घरों और परिवाजकों के आवासों (मठों) में जाकर पहले साधुओं के आवास योग्य क्षेत्र को भलीभांति देख-सोचकर फिर अवग्रह (वसति आदि) की याचना करे। उस क्षेत्र या स्थान का जो स्वामी हो, या जो वहाँ का अधिष्ठाता नियुक्त अधिकारी हो उससे इसप्रकार अवग्रह की अनुज्ञा मांगे--'आयुष्मन् ! आपकी इच्छानुसार---जितने समय तक रहने की तथा जितने क्षेत्र में निवास करने की तुम आज्ञा दोगे, उतने समय तक, उतने क्षेत्र में हम निवास करेंगे। यहां जितने समय तक आप 1. समणण्णोका अर्थ चणिकार के शब्दों में -"समणण्णो. ण केण समं असंखणं, ण वा एगल्ल विहारी।"--समनुज्ञ अर्थात् जो न तो अनियंत्रित अथवा किसी के साथ कलहकारी है, और न ही एकल विहारी है, अर्थात् जो मिलनसार है। 2. 'परपडियाए' का अर्थ चणिकार करते हैं - परवेयावडिया पर संतिएण।".-दूसरे साधु की सेवा के लिए दूसरे के अधिकार का / 3. 'सय मेसित्तए' के बदले पाठान्तर हैं-'सयमेसिय' 'सयमेसितात' 'सयमेसितए'। 4. चर्णिकार के अनुसार तात्पर्य है. 'अण्णसंभोइए पीढएण वा फलएण वा मज्जासंथारण बा उवणिमतेज्ज.---..अर्थात---अन्यसांभोगिक साधु को पीठ, फलक और शय्यासंस्तारक का उपनिमंत्रण (मनुहार) करना चाहिए। 5. 'परपडियाए' के बदले पाठान्तर है-'परवेयावडियाते'। 'ओगिव्हिय ओगिण्हिय' के बदले पाठान्तर हैं-'उगिज्झिय' उगिणिय उनिमज्जा , उगिरिह्य णिमंतेज्जा उगिहिय-२ निमंतेज्जा / ' भावार्थ समान है। 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org