________________ सप्तम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 608-11 281 छत्रक आदि उपकरणों का उल्लेख क्यों ? प्रस्तुत सूत्रपाठ में छाता (छत्रक) चर्मच्छेदनक आदि उपकरण का उल्लेख है। जबकि दशवकालिक में छत्तस्स धारणाए' कह कर इस अनाचीर्ण में बताया है, तब इनका उल्लेख शास्त्रकार ने यहां क्यों किया? वृत्तिकार एवं चूर्णिकार इसका समाधान करते हैं-छत्र वर्षाकल्पादि के समय किसी देश विशेष में कारणवश साधु रखता है। कहीं कोंकण आदि देश में अत्यन्त वृष्टि होने के कारण छत्र भी रख सकता है / उसे अभिमानवृद्धि एवं राजसी ठाटबाट का सूचक नहीं बनाना चाहिए। चर्मछदेनक भी प्रातिहारिक रूप में गृहस्थ से किसी कार्य के लिये साध लाता है; उपकरण के रुप में नहीं रखता। 'समणा भविस्सामो' आदि प्रतिज्ञा का पाठ सूत्रकृतांग में भी इसी क्रमपूर्वक मिलता है। इस प्रतिज्ञा को दोहरा कर साधु को अपनी अदत्तादान-विरमण की प्रतिज्ञा पर दृढ़ रह कर सर्वत्र अवग्रहग्रहण करने की बात पर जो दिया है। 'अकिंचन' का तात्पर्य-चूर्णिकार ने अकिंचन का स्पष्टीकरण यों किया है-साधु द्रव्य से अपुत्र, एवं धन-धान्यादि रहित है, भाव से क्रोधादि से रहित है, इसलिए वह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से अकिंचन- अपरिग्रही है। 'ओगिण्हेज्ज पगिण्हेज्ज' दोनों शब्दों के अर्थ में चूर्णिकार अन्तर बताते हैं एक बार ग्रहण करना अवग्रहण है, बार-बार ग्रहण करना प्रग्रहण है। अवग्रह-याचना: विविध रूप 608. से आगंतारेसु वा 4 अणुवीइ उग्गहं जाएज्जा, जे तत्व ईसरे जे तत्थ समाहिद्वाए ते उग्गहं अणुण्णवेज्जा—काम खलु आउसो ! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो, जाव आउसो; जाव आउसंतस्स उग्गहे, जाव साहम्मिया, एत्ताव ताव उग्गहं ओगिहिस्सामो, तेण पर विहरिस्सामो। 1. (क) आचा. वृत्ति पत्रांक 402, (ख) आचा, चणि मू. पा. टि. 1. 216 2. तुलना कीजिए --समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो पावं कम्म नो करिस्सामी समुहाए।"—सूत्रकृतांग 2/1/2 3. अकिंचणा-दव्वे अपुत्ता अपसू. भावे अकोहा--आचा-णि म.पा. टि. पु. 216 4. "ओगिण्हति एक्कासि, पगिण्हति पुणो पूणो ।"-आचा० चणि म. वा. टि. पू. 216 5. 'आगंतारेसु वा' के आगे '8' का अंक सूत्र 432 के अनुसार "आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा" पाठ का सूचक है। 6. पूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर हैं.-"इस्सरो, समाधिठाए।' अर्थ किया गया है-इस्सरो-राया भोइओ जाव सामाइओ। समाधिट्ठाए- प्रभुसं दिट्ठो गहबतिमादी ।'---ईश्वर का अर्थ है—राजा, ग्रामाध्यक्ष, ग्रामाध्यापक स्वामी या मालिक आदि / समाधिष्ठाता का अर्थ है-स्वामी के द्वारा आदिष्ट या नियुक्त अधिकारी, गहपति आदि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org