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________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पृथक्-अन्य का क्षय करता हुआ एक अनन्तानुबन्धी नामक कषाय का भी क्षय कर देता है। 'विगिच' शब्द का अर्थ 'क्षय करना' ही ग्रहण किया गया है।' 'अस्थि सत्यं परेण परं'- इस सूत्र की शब्दावली के पीछे रहस्य यह है कि जनसाधारण को शस्त्र से भय लगता है, साधक को भो, फिर वह अकुतोभय कैसे हो सकता है ? इसी का समाधान इस सूत्र द्वारा किया गया है कि द्रव्यशस्त्र उत्तरोत्तर तीखा होता है, जैसे एक तलवार है, उससे भी तेज दूसरा शस्त्र हो सकता है। जैसे शस्त्रों में उत्तरोत्तर तीक्ष्णता मिलती है, वैसी तीक्ष्णता अशस्त्र में नहीं होती। अशस्त्र हैं--संयम, मैत्री, क्षमा, कषाय-क्षय, अप्रमाद आदि। इनमें एक दूसरे से प्रतियोगिता नहीं होती। इसी प्रकार भावशस्त्र हैं-दोष, घृणा, क्रोधादि कषाय, ये सभी उत्तरोत्तर तीव्र-मन्द होते हैं। जैसे राम को श्याम पर मंद क्रोध हुमा, हरि पर वह तीव्र हुमा और रोशन पर वह और भी तीव्रतर हो गया, किन्तु 'कमल' पर उसका क्रोध तीव्रतम हो गया। इस प्रकार संज्वलन, प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और अनन्तानुबन्धी क्रोध की तरह मान, माया, लोभ तथा द्वष आदि में उत्तरोत्तर तीव्रता होती है। किन्तु अशस्त्र में समता होती है। समभाव एकरूप होता है, वह एक के प्रति मंद और दूसरे के प्रति तीव्र नहीं हो सकता / 'जे कोहवंसी' इत्यादि कम-निरूपण का आशय भी क्रोधादि का स्वरूप जानकर उनका परित्याग करने वाले साधक की पहिचान बताना है / क्रोधदर्शी आदि में जो 'दर्शी' शब्द जोड़ा गया है, उसका तात्पर्य है-क्रोधादि के स्वरूप तथा परिणाम आदि को जो पहले ज्ञपरिज्ञा से जानता है, देख लेता है, फिर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका परित्याग करता है, क्योंकि ज्ञान सदैव अनर्थ का परित्याग करता है। . 'ज्ञानस्य फलं विरति'-ज्ञान का फल पापों का परित्याग करना है, यह उक्ति प्रसिद्ध है / इसी लम्बे क्रम को बताने के बाद शास्त्रकार स्वयं निरूपण करते हैं _ 'से मेहावी अभिणिवट्टज्या कोधं च......' क्रोधादि के स्वरूप को जान लेने के बाद साधक क्रोधादि से तुरन्त हट जाये, निवृत्त हो जाए। 2. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 157 / 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 157 / 3. प्राचा. शीला ठीको पत्रांक 158 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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