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________________ तृतीय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 128-131 117 'यहाँ 'नाम' शब्द 'क्षपक'(क्षय करने वाला)या 'उपशामक' अर्थ में ग्रहण करना अभीष्ट है। उपशमश्रेणी की दृष्टि से भी इसी तरह एकनाम, बहुनाम की चतुर्भगी समझ लेनी चाहिए।'. कषाय-त्याग की उपलब्धियाँ बताते हुए, 'जति वीरा महाजाणं परेण परं अंति' इत्यादि वाक्य कहे गये हैं / कर्म-विदारण में समर्थ, सहिष्णु या कषाय-विजयी साधक बीर कहलाते हैं। वृत्तिकार ने 'महायान' शब्द के दो अर्थ किये हैं (1) महान् यान (जहाज) महायान है, वह रत्नत्रयरूप धर्म है, जो मोक्ष तक साधक को पहुँचा देता है / / (2) जिसमें सम्यग्दर्शनादि त्रय रूप महान् यान हैं, उस मोक्ष को महायान कहते हैं / _ 'महायान' का एक अर्थ-विशाल पथ अथवा 'राजमार्ग' भी हो सकता है / संयम का पथ-राजमार्ग है, जिस पर सभी कोई निर्भय होकर चल सकते हैं। 'परेण परं जंति' का शब्दशः अर्थ तो किया जा चुका है / परन्तु इसका तात्पर्य है आध्यान त्मिक दृष्टि से (कषाय-क्षय करके) आगे से आगे बढ़ना। वृत्तिकार ने इसका स्पष्टीकरण यों किया है-सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने से नरक-तिर्यंचगतियों में भ्रमण रुक जाता है, साधक सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र का यथाशक्ति पालन करके आयुष्य क्षय होने पर सौधर्मादि देवलोकों में जाता है, पूण्य शेष होने से वहाँ से मनुष्यलोक में कर्मभूमि, आर्यक्षेत्र, सुकुलजन्म, मनुष्यगति तथा संयम आदि पाकर विशिष्टतर अनुत्तर देवलोक तक पहुँच जाता है। फिर वहाँ से च्यवकर मनुष्य जन्म तथा उक्त उत्तम संयोग प्राप्त कर उत्कृष्ट संयम पालन करके समस्त कर्मक्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार पर अर्थात् संयमादि के पालन से पर-अर्थात् स्वर्ग-परम्परा से अपवर्ग (मोक्ष) भी प्राप्त कर लेता है। अथवा परसम्यग्दृष्टि गुणस्थान (4) से उत्तरोत्तर आगे बढ़ते-बढ़ते साधक अयोगिकेवली गुणस्थान (14) तक पहुँच जाता है। अथवा पर-अनन्तानुबन्धी के क्षय से पर-दर्शनमोह-चारित्रमोह का क्षय अथवा भवोपग्राही-घाती कर्मों का क्षय कर लेता है। उत्तरोत्तर तेजोलेश्या प्राप्त कर लेता है, यह भी 'परेण परं अंति' का अर्थ है। 'णावकखंति जीवितं' के दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं (1) दीर्घजीविता नहीं चाहते, कर्मक्षय के लिए उद्यत क्षपक साधक इस बात की परवाह (चिन्ता) नहीं करते कि जीवन कितना बीता है, कितना शेष रहा है / (2) वे असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करते / / 'एग विगिचमाणे- इस सूत्र का प्राशय यह है कि क्षपकश्रेणी पर आरूढ उत्कृष्ट साधक एक अनन्तानुबन्धीकषाय का क्षय करता हुआ, पृथक्-अन्य दर्शनावरण आदि का भी क्षय कर लेता है / आयुष्यकर्म बंध भी गया हो तो भी दर्शनसप्तक का क्षय कर लेता है। 2. 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 156 / 3. आचा० शीला० टीका पत्रांक 156 / 5. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 157 / ग्राचा० शीला टीका पत्रांक 156 / प्राचा० शीला टीका पत्रांक 156 / 4. साल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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