________________ 116 आचारांग सुत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध एगववियस्स जे अत्थपज्जवा वंजणपज्जवा वावि / तीयाऽणागयभूया तावइयं तं हवइ बध्यं // 'एक द्रव्य के जितने अर्थपर्यव और व्यंजनपर्यव अतीत, अनागत और वर्तमान में होते हैं, उतने सब मिलाकर एक द्रव्य होता है।' प्रत्येक वस्तु द्रव्यदृष्टि से अनादि, अनन्त और अनन्त धर्मात्मक है / उसके भूतकालीन पर्याय अनन्त हैं, भविष्यत्कालीन पयि भी अनन्त होंगे और अनन्त धर्मात्मक होने से वर्तमान पर्याय भी अनन्त हैं। ___ ये सब उस वस्तु के स्व-पर्याय हैं / इनके अतिरिक्त उस वस्तु के सिवाय जगत् में जितनी दूसरी वस्तुएँ हैं उनमें से प्रत्येक के पूर्वोक्त रीति से जो अनन्त-अनन्त पर्याय हैं, वे सब उस वस्तु के पर-पर्याय हैं। ये पर-पर्याय भी स्व-पर्यायों के ज्ञान में सहायक होने से उस वस्तु--सम्बन्धी हैं / जैसे स्व-पर्याय वस्तु के साथ अस्तित्व सम्बन्ध से जुड़े हुए हैं, उसी प्रकार पर-पर्याय भी नास्तित्व सम्बन्ध से उस वस्तु के साथ जुड़े हैं। ___ इस प्रकार वस्तु के अनन्त भूतकालीन, अनन्त भविष्यत्कालीन, अनन्त वर्तमानकालीन स्व-पर्यायों को और अनन्तानन्त पर-पर्यायों को जान लेने पर ही उस एक वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान हो सकता है / इसके लिए अनन्तज्ञान की आवश्यकता है / अनन्तज्ञान होने पर ही एक वस्तु पूर्णरूप से जानी जाती है और जिसमें अनन्तज्ञान होगा, वह संसार की सर्व वस्तुओं को जानेगा। __ इस अपेक्षा से यहां कहा गया है कि जो एक वस्तु को पूर्ण रूप से जानता है, वह सभी वस्तुओं को पूर्ण रूप से जानता है और जो सर्व वस्तुओं को पूर्ण रूप से जानता है, वही एक वस्तु को पूर्ण रूप से जानता है / यही तथ्य इस श्लोक में प्रकट किया गया है एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टा / ___ सर्वे भावाः सर्वभा येन दृष्टा, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः // _ 'जे एगं नामे'—इस सूत्र का आशय भी बहुत गम्भीर है--(१) जो विशुद्ध अध्यवसाय से एक अनन्तानुबन्धी क्रोध को नमा देता है-क्षय कर देता है, वह बहुत से अनन्तानुबन्धी मान आदि को नमा-खपा देता है, अथवा अपने ही अन्तर्गत अप्रत्याख्यानी आदि कषाय-प्रकारों को नमा-खपा देता है। (2) जो एक मोहनीय कर्म को नमा देता है-क्षय कर देता है, वह शेष कर्म प्रकृतियों को भी नमा-खपा देता है। इसी प्रकार जो बहुत से कम स्थिति वाले कर्मों को नमा-खपा देता है, वह उतने समय में एक अनन्तानुबन्धी कषाय को नमाता-खपाता है, अथवा एक मात्र मोहनीय कर्म को (उतने समय में) नमाता-खपाता है, क्योंकि मोहनीय कर्म को उत्कृष्ट स्थिति 70 कोटा-कोटी सागरोपमकाल की है, जबकि शेष कर्मों की 20 या 30 कोटा-कोटी सागरोपम से अधिक स्थिति नहीं है। 1. प्राचा० शीला• टीका पत्रांक 155 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org