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________________ 364 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध भगवान् का गर्भावतरण 734. समणे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए वोतिकताए, सुसमाए समाए वोतिकताए, सुसमदुसमाए समाए वीतिकंताए, दुसमसुसमाए समाए बहुवोतिकताए, पण्णत्तरीए वासेहि मासेहिं य अद्धणवम सेसेहि, जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसाढसुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं हत्थुत्तराहि णक्खत्तेणं जोगोवगतेणं', महाविजयसिद्धत्थपुप्फुत्तरवरपुंडरीयविसासोबत्थियवद्धमाणातो महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाई आउयं पालइत्ता आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं चुते, चइत्ता इह खलु जंबुद्दीवे णं वीवे भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे दाहिण माहणकुंडपुरसंणिवेसंसि उसभवत्तस्स माहणस्स कोडालसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरायणसगोत्ताए सीहन्भवभूतेणं अप्पाणं कुच्छिसि गम्भं वक्कते। समणे भगवं महावीरे तिण्णाणोवगते यावि होत्था, चइस्सामि त्ति जाणति, चुए मि त्ति जाणइ, चयमाणे ण जाणति, सुहुमे णं से काले पण्णते / 734. श्रमण भगवान् महावीर ने इस अवसर्पिणी काल के सुषम-सुषम, नामक आरक, सुषम आरक और सुषम-दुषम आरक के व्यतीत होने पर तथा दुषम-सुषम नामक आरक के अधिकांश व्यतीत हो जाने पर और जब केवल 75 वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रह गए थे, तब; ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवें पक्ष, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि को; उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर महाविजयसिद्धार्थ, पुष्पोत्तरवर पुण्डरीक, दिक्स्वस्तिक, वर्द्धमान महाविमान से बीस सागरोपम की आयु पूर्ण करके देवायु, देवभव और देवस्थिति को समाप्त करके वहां से च्यवन किया / च्यवन करके इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष (ख) शूरवीर विक्रान्तो इति कषायादि शत्रु जयान्महाविक्रान्तो महावीरः / / ----दशवै हारि० टीका प० 137 (ग) “सहसंम्मुइए समणे भीमं भयभैरवं उरालं अचेलयं परीसहे सहत्ति कट् देवेहि से नाम कयं समणं भगव महावीरे ," ___--आचा० 2/3/400 पत्र 386 (सूत्र 743) ख) तुलनार्थ देखें-आव० चूणि पृ० 245 1. 'जोगोवगतेणं' के बदले पाठ है--'जोगमुवागएण' 2. इसके बदले पाठान्तर है-चयं चइत्ता इहेव जंबूद्दीवे दीवे। 3. 'आउयं' के बदले पाठान्तर है-अहाउयं / अर्थ है-जितना आयुष्य था, उतना पाल कर / 4. 'तिण्णाणोबगते' के बदले पाठान्तर हैं-'तिणाणोवगते / अर्थ समान है। 'चयमाणे ण जाणति' इसका विश्लेषण करते हए चर्णिकार कहते हैं-'तिन्ति ताणा, एकसमइ उवजोगो णत्यि, तेण ण याणई चयमाणो / ' (पृ० 260) अर्थात् भगवान् में तीन ज्ञान थे, एक समय (च्यवन काल के समय) में उपयोग नहीं लगता, इसलिए च्यवन करते हुए वे नहीं जानते थे। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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