________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 734 365 के दक्षिणार्द्ध भारत के दक्षिण-ब्राह्मणकुण्डपुर सन्निवेश में कुडालगोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की जालंधर मोत्रीया देवानन्दा नाम की ब्राह्मणी की कुक्षि में सिंह की तरह गर्भ में अवतरित श्रमण भगवान् महावीर (उस समय) तीन ज्ञान (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान) से युक्त थे। वे यह जानते थे कि मैं स्वर्ग से च्यव कर मनुष्यलोक में जाऊंगा। मैं वहाँ से च्यव कर गर्भ में आया हूँ, परन्तु वे च्यवनसमय को नहीं जानते थे, क्योंकि वह काल अत्यन्त सूक्ष्म होता है। विवेचन देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में भगवान का अवतरण---इस सूत्र में शास्त्रकार ने माता के गर्भ में प्रभु महावीर के अवतरण का वर्णन किया है। इसमें भ० महावीर के द्वारा गर्भ में अवतरित होने के समय की चार स्थितियों का विशेषतः उल्लेख किया गया है(१) उस समय के काल, वर्ष, मास, पक्ष, ऋतु नक्षत्र तिथि आदि का निरूपण, (2) किस विमान से, किस वैमानिक देवलोक से च्यव कर गर्भ में आए ? (3) किस ब्राह्मण की पत्नी, किस नाम गोत्रवाली माता के गर्भ में अवतरित हुए ? (4) गर्भ में अवतरित होने से पूर्व, पश्चात् एवं अवतरित होते समय की ज्ञात दशा का वर्णन / "इमाए ओसप्पिणोएबहुवोतिकताए..." जैन शास्त्रों में कालचक्र का वर्णन आता है। प्रत्येक कालचक्र बीस (20) कोटाकोटी सागरोपम परिमित होता है। इसके दो विभाग हैअवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। अवसर्पिणी काल-चक्रार्ध में 10 कोटाकोटी सागरोपम तक समस्त पदार्थों के वर्णादि एवं सुख का उत्तरोत्तर क्रमशः ह्रास होता जाता है। अतः यह ह्रासकाल माना जाता है। इसी तरह उत्सर्पिणी काल-चक्रार्ध में 10 कोटाकोटी सागरोपम तक समस्त पदार्थों के वर्णादि एवं सुख की उत्तरोत्तर क्रमशः वृद्धि होती जाती है / अतः यह उत्क्रान्ति काल माना जाता है। प्रत्येक कालचक्राद्ध में 6-6 आरक (आरे) होते हैं। अवसर्पिणीकाल के 6 आरक इस प्रकार हैं-(१) सुषम-सुषम, (2) सुषम, (3) सुषम-दुषम, (4) दुषम-सुषम, (5) दुषम और (6) दुषम-दुषम। यह क्रमश: (1) चार कोटाकोटी सागरोपम, (2) तीन कोटा०, (3) दो कोटा०, (4) 42 हजार वर्ष कम एक कोटाकोटी, (5) 21 हजार वर्ष, और (6) 21 हजार वर्ष, परिमित काल का होता है। अवसर्पिणी काल का छठा आरा समाप्त होते ही उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ हो जाता है। इसके 6 आरे इस प्रकार हैं-१. दुषम-दुषम, 2. दुषम, 3. दुषम-सुषम, 3. सुषम-दुषम, 5. सुषम और 6. सुषम-सुषम। प्रस्तुत में अवसर्पिणी काल के क्रमशः३ आरे समाप्त होने पर, चतुर्थ आरक का प्रायः भाग समाप्त हो चुका था, उसमें सिर्फ 75 वर्ष, 8 // महीने शेष रह गए थे, तभी भगवान् ....“गर्भ में अवतरित हुए थे। 1. आचा वृत्ति पत्रांक 425 के आधार पर / 2. कल्पसूत्र (पं0 देवेन्द्र मुनि सम्पादित) 10 24, 25, 26 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org