________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 646-67 तेणं कालेणं तेण समएणे- उस दुषम-सुषमादि काल (चतुर्थ आरा) तथा उस विवक्षित विशिष्ट समय (चतुर्थ आरे का अंतिम चरण) में, जिस समय में जन्मादि अमुक कल्याणक हुआ था। ___पंच हत्थुत्तरे-हस्त (नक्षत्र) से उत्तर हस्तोत्तर है, अर्थात्-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र / नक्षत्रों की गणना करने से हस्तनक्षत्र जिसके उत्तर में (बाद में) आता है, वह नक्षत्र हस्तोत्तर कहलाता है / यहाँ 'पंच-हत्युत्तरे' महावीर का विशेषण है, जिनके गर्भाधान-संहरण-जन्म-दीक्षा केवलज्ञानोत्पत्ति रूप पाँच कल्याणक हस्तोत्तर में हुए है, इसलिए भगवान् ‘पंच हस्तोत्तर' हुए हैं।' 'समणे भगवं महावीरे' की व्याख्या-भगवान् महावीर के ये तीन विशेषण मननीय है। 'समण' के तीन रूप होते है-श्रमण, शमन और समन-'सुमनस्' / श्रमण का अर्थ क्रमश: काय, आत्म-साधना के लिए स्वयंश्रमी और तपस्या से खिन्नतपस्वी श्रमण कहलाता है। कषायों को शमन करनेवाला शमन, तथा सबको आत्मौपम्यदृष्टि से देखने वाला समन और राग-द्वेष रहित मध्यस्थवृत्ति वाला सुमनस् या समनस् कहलाता है, जिसका चित्त सदा कल्याणकारी चिन्तन में लगा रहता हो, वह भी समनस् या सुमनस् कहलाता है। भगवान् का अर्थ है- जिसमें समग्र ऐश्वर्य, रूप, धर्म, यश, श्री, और प्रयत्न ये 6 भग हों। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार भगवान् शब्द की व्युत्पत्ति यों है--जिसके राग, द्वेष, मोह एवं आश्रव भग्न-नष्ट हो गए हैं, वह भगवान् है। ___ महावीर—यश और गुणों में महान् वीर होने से भगवान् महावीर कहलाए / कषायादि शत्रुओं को जीतने के कारण भगवान् महाविक्रान्त महावीर कहलाए। भयंकर भय-भैरव सथा अचेलकता आदि कठोर तथा घोरातिघोर परीषहों को दृढ़तापूर्वक सहने के कारण देवों ने उनका नाम महावीर रखा। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 425 / 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 425 / (ख) कल्पसूत्र आ० पृथ्वीचन्द्र टिप्पण स० 2 10 1 / 3. (क) दशवकालिक नियुक्ति गा० 154, 155, 156 'समण' शब्द की व्याख्या। (ख) अनुयोग द्वार 126-131 / (ग) “सह मनसा शोभनेन, निदान-परिणाम-लक्षण-पापरहितेन चेतसा वर्तते इति सुमनसः / --स्थानांग 4/4/363 टीका (घ) "श्राम्यते तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमण:।" -सूत्र कृ० 1/16/1 टीका (ङ) "श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः / " ..--दशव० हारि० टीका पत्र 68 4. (अ) ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशस:श्रियः......" -दशवै० चूणि (आ) भग्गरागो भग्गदोसो भग्गमोहो अनासवो। भग्गासपापको धम्मो भगवा तेन वुच्चति // -विसुद्धिमग्गो 7/56 5. (क) 'महतो बसोगुणेहि वीरोत्ति महावीरो।' - दशवं० जिनदास चूणि पृ० 132 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org