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________________ 153 द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 446 पच्छा तस्स गिहे णिमंतेमाणस्स वा अणिमंतेमाणस्स वा असणं वा 4 अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा / __445. वह साधु पथिकशालाओं, आरामगृहों, गृहपति के घरों, परिवाजकों के मठों आदि को देख-जान कर और विचार करके कि यह उपाश्रय कैसा है ? इसका स्वामी कौन है ? आदि बातों का विचार करके फिर (इनमें से किसी) उपाश्रय की याचना करे / जैसे कि वहाँ पर या उस उपाश्रय का स्वामी है, (या स्वामी द्वारा नियुक्त) समधिष्ठाता है. उसमे आज्ञा मांगे और कहे---'आयुष्मन् ! आपकी इच्छानुसार जितने काल तक और (इस उपाश्रय का) जितना भाग (स्थान) आप (ठहरने के लिए) देना चाहें, उतने काल तक, उतने भाग में हम रहेंगे।" गृहस्थ यह पूछे कि "आप कितने समय तक यहाँ रहेंगे ?" इस पर मुनि उत्तर दे-- "आयुष्मन् सद्गृहस्थ ! [वेसे तो कारण विशेष के बिना हम ऋतुबद्ध (शेष) काल में एक मास तक और वर्षाकाल में चार मास तक एक जगह रह सकते हैं; किन्तु] आप जितने समय तक और उपाश्रय के जितने भाग में ठहरने की अनुज्ञा देंगे, उतने समय और स्थान तक में रहकर फिर हम विहार कर जाएगे। इसके अतिरिक्त जितने भी सार्मिक साधु (पठन-पाठनादि कार्य के लिए) आए गे, वे भी आपकी अनुमति के अनुसार उतने समय और उतने भाग में रहकर फिर विहार कर जाएंगे।" 446. साधु या साध्वी जिस गृहस्थ के उपाश्रय में निवास करें, उसका नाम और गोत्र पहले से जान लें। उसके पश्चात् उसके घर में निमंत्रित करने (बुलाने) या न करने (न बुलाने) पर भी उसके घर का अशनादि चतुर्विध आहार अप्रासुक-अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे। विवेचन-उपाश्रय-याचना और निवास के पश्चात्-सूत्र 445 में उपाश्रय-याचना के पूर्व और पश्चात् की व्यावहारिक विधि बताई गई है। उपाश्रय-याचना से पूर्व साधु उसकी प्रासुकता, एषणीयता, निर्दोषता तथा उपयोगिता की भलीभाँति जांच-परख कर लें, साथ ही उसके स्वामी तथा स्वामी द्वारा नियुक्त अधिकारी की जानकारी कर लें; सम्भव है, वह नास्तिक हो, साधु-द्वेषी हो, अन्य सम्प्रदायानुरागी हो, देना न चाहता हो। इतनी बातें अनुकूल हो, तब साधु उस मकान के स्वामी या अधिकारी से उपाश्रय की याचना करे। एक बात का विशेष ध्यान रखे कि वह मुनियों की निश्चित संख्या न बताए।' (क्योंकि दूसरे साधुओं का आवागमन होता रह सकता है-कभी कम, कभी अधिक भी हो सकते हैं।) उपाश्रय याचना के बाद स्वीकृति मिलते ही उस उपाश्रय स्थान के दाता (शय्यातर) का नाम-गोत्र तथा घर भी जान ले ताकि उसके घर का आहार-पानी न लेने का ध्यान रखा जा सके / यही सूत्र 446 का आशय है / -- -- - 1. आचारांग सूत्र वृत्ति पत्रांक 370 के आधार पर। 2. वही, पत्रांक 370 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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