________________ 152 आचारांग सूत्र---द्वितीय अ तस्कन्ध विवेचन--उपाश्रयनिबास के समय विवेक और सावधानी—इस सूत्र में निर्दोष उपाश्रय मिलने पर भी तीन बातों की ओर साधु का ध्यान खींच गया है-(१) छोटे संकीर्ण, नीचे दरवाजों वाले या नीची छत के या अंधेरे वाले उपाश्रय में बिना कारण न ठहरे, (2) जहाँ पहले से ही अनेक अन्यमतीय श्रमणों या माहनों की भीड़ हो, वहाँ भी बिना कारण न ठहरे, (3) कारण वश ऐसे मकान में ठहरना पड़े तो रात में या सन्ध्याकाल में जाते-आते समय किसी वस्तु या व्यक्ति के जरा-सी भी ठेस न लगाते हुए हाथ या रजोहरण से टटोल कर चले, अन्यथा वस्तु को या दूसरों को अथवा स्वयं को हानि पहुंचाने की सम्भावना है। इस प्रकार के विवेक और सावधानी बताने के पीछे शास्त्रकार का आशय अहिंसा महाव्रत की सुरक्षा से है / अन्य श्रमणों या भिक्षाचरों को भी निर्ग्रन्थ साधुओं के व्यवहार से जरा सा भी मनोदुःख न हो, न घृणा हो, साथ ही अपना भी अंग-भंग आदि होने से आर्तध्यान न हो, इसी दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र में विवेक और सावधानी का निर्देश है।' उपाश्रय-याचना विधि 445. से आगंतारेसु वा 4 अणुवीयो उवस्सयं जाएज्जा / जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समाधिट्ठाए' ते उवस्मयं अणुण्णवेज्जा--कामं खलु आउसो ! अहालंदं अहापरिण्णातं वसिस्सामो, जाव आउसंतो, जाव आउसंतस्स उवस्सए, जाव साहम्मिया, एत्ताव ता उवस्सयं गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो। 446. से भिक्खू वा 2 जस्सुवस्सए संवसेज्जा तस्स पुटयामेव णामगोतं जाणेज्जा, तओ 1. आचरांग बृत्ति पत्रांक 366 के आधार पर, 2. 'आगंतारेसु वा' के बाद '4' का चिन्ह सूत्र 432 के 'आगंतारेसु वा' से 'परियावसहेसु' तक के पाठ का सूचक है। 3. जाएज्जा के स्थान पर जाणेज्जा पाठ किसी-किसो प्रति में मिलता है। 4. समाधिहाए के स्थान पर समाहिठाए पाठ मानकर चूर्णिकार अर्थ करते हैं—समाहिहाए = पभुसंदिट्ठो-स्वामी के द्वारा आदिष्ट नियुक्त। 5. जाब साहम्मिया आदि पंक्ति की व्याख्या करते हुए चूणिकार कहते हैं---"जत्तिया तुम इच्छसि जे वा तुम भणसि णामेणं असुओ गोलणं विसेसितो, कारणे एवं, णिक्कारणे ण ठायंति, तेण पर जति तुम उविट्टिज्जिहिसि ण वा तव रोइहिहि उवस्सओ वा भज्जिहिति परेण विहरिस्सामो।" -जब तक तुम चाहते हो, या जिन साधुओं का नाम लेकर अथवा जिस गौत्र से विशिष्ट बताया है. वे कारणवश उतने ही, उसी (उतने ही) स्थान में ठहरेंगे, बिना कारण नहीं रहेंगे। उस अवधि के पश्चात् यदि तुम इसे खाली कराओगे, या तुम्हें पसन्द न होगा या उपाश्रय का दूसरे कोई उपयोग करेंगे, तो हम विहार कर देंगे।" णामगोत्त' जाणेज्जा का आशय चूणिकार बताते हैं---णामगोत जाणेत्ता-----भत्तपाणं ण गिहिति।" साधु (शय्यातर का) नाम-गोत्र जान कर-उसके घर का आहार-पानी नहीं लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org