________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 581 255 / बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक वस्त्र-धारण की सहज विधि 581. से भिक्खू वा 2 अहेसणिज्जाई वत्थाइ जाएज्जा, अहापरिग्गहियाइ वत्थाई धारेज्जा, णो धोएज्जा, गो रएज्जा, णो धोतरत्ताई वत्थाइ धारेज्जा, अपलिउंचमाणे गामतरेसु, ओमचेलिए / एतं खलु वत्थधारिस्स सामग्गियं / 581. साधु या साध्वी वस्त्रैषणा समिति के अनुसार एषणीय वस्त्रों की याचना करे, और जैसे भी वस्त्र मिले और लिए हों, वैसे ही वस्त्रों को धारण करे, परन्तु (विभूषा के लिए) न उन्हें धोए, न रंगे, और न ही धोए हुए तथा रंगे हुए वस्त्रों को पहने। उन (बिना उजले धोए या रंगे) साधारण-से वस्त्रों को न छिपाते हुए ग्राम-नामान्तर में समतापूर्वक विचरण करे / यही वस्त्रधारी साधु का समग्र आचार सर्वस्व है / विवेचन---वस्त्र-धारण का सहज-विधान-~-प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र-धारण के सम्बन्ध में शास्त्रकार ने 5 बातों की ओर साधु-साध्वी का ध्यान खींचा है-- (1) सादे एवं साधारण अल्पमूल्यवाले एषणीय वस्त्र की याचना करे, (2) जैसे भी सादे एवं साधारण-से वस्त्र मिले या ग्रहण करे, वैसे ही स्वाभाविक वस्त्रों को सहजभाव से वह पहने-ओढ़े। (3) उन्हें रंग-धोकर या उज्ज्वल एवं चमकीले-भड़कीले बनाकर न पहने।' (4) ग्राम-नगर आदि में विचरण करते समय भी उन्हीं साधारण-से वस्त्रों में रहे / (5) उन्हें छिपाए नहीं। ‘अपलिउंचमाणे' आदि पदों के अर्थ-- अपलिउंचमाणे = नहीं छिपाते हुए। ओमचेलिए = स्वल्प तथा तुच्छ (साधारण) वस्त्रधारी। णो धोएज्जा णो रएज्जा, णो धोतरत्ताइ वत्थाई धारेज्जा यह निषेधसूत्र साज-सज्जा, विभूषा, शृंगार तथा छल-छबीला बनने की दृष्टि से है। प्रदर्शन या अच्छा दिखने की दृष्टि ये वस्त्रों को विशेष उज्ज्वल करना निषिद्ध है, श्वेत वस्त्रधारी के लिए वस्त्र रंगना भी निषिद्ध है, किन्तु कई वस्त्र का रंग स्वाभाविक मटमैला या हलका-पीला-सा होता है, उन्हें धारण करने में कोई दोष नहीं है। वृत्तिकार शोलाचार्य का मत है - यह सूत्र जिनकल्पिक के उद्देश्य में उल्लिखित समझना चाहिए, वस्त्रधारी विशेषण होने मे स्थविरकल्पी के भी अनुरूप है। 1. बौद्ध श्रमण पहले गोबर व पीली मिट्टी से वस्त्र रंगते थे। वे दुर्वर्ण हो जाते, तब बुद्ध ने छाल का रंग, पत्ते का रंग व पुष्प-रंग से वस्त्र रॅगने की अनुमति दी। —विनयपिटक प० 277-78 2. 'गतच्च सूत्र जिनकल्पिकोद्देशन, द्रष्टव्यं, वस्त्रधारित्वविशेषणाद गच्छान्तर्गतेऽपि चाविरुद्धम् / ----आचारांग वृत्ति पत्रांक 367 Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only