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________________ 254 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध अन्तरिक्ष (उच्च) स्थान पर जो कि भलीभांति बंधा हुआ, या जमीन पर गड़ा हुआ नहीं है, चंचल आदि है, यावत् थोडा या अधिक न सुखाए। 578. यदि साधु या साध्वी वस्त्र को धूप में थोड़ा या अधिक सुखाना चाहते हों तो उस वस्त्र को स्तम्भ पर, मंच पर, ऊपर की मंजिल पर, महल पर भवन के भूमिगृह में, अथवा इसीप्रकार के अन्य अन्तरिक्षजात-ऊँचे स्थानों पर जो कि दुर्बद्ध, दुनिक्षिप्त, कंपित, एवं चलाचल हो, (वहाँ, वस्त्र) थोड़ा या बहुत न सुखाए।' 576. साधु उस वस्त्र को लेकर एकान्त में जाए, वहां जाकर (देखे कि) जो भूमि अग्नि से दग्ध हो, यावत् वहाँ अन्य कोई उस प्रकार की निरवद्य अचित्त भूमि हो, उस निर्दोष स्थंडिलभूमि का भलीभाँति प्रतिलेखन एवं रजोहरणादि से प्रमार्जन करके तत्पश्चात यतनापूर्वक उस वस्त्र को थोड़ा या अधिक धूप में सुखाए। विवेचन-पिछले चार सूत्रों में ऐसे स्थानों या आधारों पर वस्त्र को सुखाने का निषेध किया है-(१) जो सचित्त हो, (2) सचित्त जीव से अधिष्ठित हो, (3) सचित्त पर रखी हुई हो, (4) ढूंठ, ऊखल, स्नानपीठ या देहली आदि जो चल-विचल हो, उस पर, (5) दीवार, नदी तट, शिला, पत्थर आदि पर, (6) खंभे, मचान, छत, महल आदि किसी ऊँचे स्थान पर जोकि चंचल हो, उस पर या तहखाने में / इन पर वस्त्र न सुखाने का जो निर्देश है, वह हिंसा एवं आत्म-विराधना की दृष्टि से तथा कपड़े उड़कर कहीं अन्यत्र चले जाने या अयतनापूर्वक गिर जाने, हवा में फरफट करने से अयतना होने की दृष्टि से है, यही कारण है कि अन्त में, सूत्र 576 में अचित, निर्दोष, स्थण्डिलभूमि पर प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके यतनापूर्वक सुखाने का विधान भी किया गया है। गिहेलुगंसि आदि पदों के अर्थ-गिहेलुगं = घर के द्वार की देहली, उंबरा। उसुयाल = ऊखल। कामजलं-स्नानपीठ 580. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा 2 सामग्गियं जं सव्वट्ठोहि सहितेहि सदा जएज्जासि त्ति बेमि। 580. यही (वस्त्रों के ग्रहण-धारण-परिरक्षण-सम्बन्धी एषणाविवेक ही, उस साधु या साध्वी का सम्पूर्ण आचार है, जिसमें) सभी अर्थों एवं ज्ञानादि आचार से सहित होकर वह सदा प्रयत्नशील रहे। ऐसा मैं कहता हूँ। // "वत्थेसणाए" पढमो उद्देसओ समत्तो। 1. बौद्ध श्रमण पहले जमीन पर चीवर सुखा देते थे, उनमें धल लग जाती, अतः बाद में तथागत ने तण संथरी की, तृणसंथरी को कीड़े खा जाते थे इसलिए पश्चात् बाँस पर रस्सी बाँधकर सुखाने की अनुमति दी। -विनयपिटक पु० 278 आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 3. (क) निशीथभाप्य मा० 4268, (ख) आचारांग चणि मू० पा० टि० पृ० 208 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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