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________________ 200 आचारांग सूत्र-द्वितीय तस्कन्ध इसके अतिरिक्त मूलपाठ में भी यह बताया गया है कि वहां रहने वाले पशु पक्षी डरेंगे, एक या अनेक प्रकार से त्रस्त होकर इधर-उधर भागेंगे. शरण ढूँढेंगे। भागते हुए पशु पक्षियों को कोई पकड़ कर मार भी सकता है। चूर्णिकार कहते हैं 'चक्षु-लोलुपता के कारण साधु के ईर्यापथ-संयम में विघ्न पड़ेगा। वहाँ चरते हुए पशु-पक्षियों के चरने में भी अन्तराय पड़ेगा। निशीथचूणि में भी बताया गया है दो प्रकार के सरीसृप और तीन प्रकार के जलचर, स्थलचर, खेचर जीव अपने-अपने योग्य शरण ढूंढेंगे, जैसे जलचर जल में, स्थलचर बिल पर्वत आदि में, साधु उन्हें अपनी भुजा, अंगुली आदि से डरा देता है जिससे वे अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र भागते हैं, उनके चारा दाना आदि में अन्तराय पड़ती है।' कूडागाराणि आदि पदों के अर्थ.----कूडागाराणि = रहस्यमय गुप्तस्थान, अथवा पर्वत के कूट (शिखर) पर बने हुए गृह, दवियाणि=अटवी में घास के संग्रह के लिए बने हुए मकान, गूमाणि= भूमिगृह, वणयागि=नदी आदि से वेष्टित भूभाग, गहणाणि=निर्जल प्रदेश, रन / गहणविदुग्गाणि-रन में सेना के छिपने के स्थान के कारण दुर्गम, वर्णावदुग्गाणि-नाना जाति के वृक्षों के कारण दुर्गम स्थल, पन्वयनुग्गाणि =अनेक पर्वतों के कारण दुर्गम प्रदेश, सरसरपंतियाणि =एक के बाद एक, यों अनेक सरोवरों की पंक्तियां / गुजालियाओ-लम्बी गम्भीर टेढ़ीमेढ़ी जल की वापिकाएँ। णिज्झाएज्जा-बार-बार या लगातार ताक-ताककर देखे। उत्तसेज्ज वित्तसेज्ज थोडा त्रास दे, अनेक बार त्रास दे। आचार्यादि के साथ विहार में विनयविधि 506. से भिक्खू वा 2 आयरिय-उवज्झाएहि सद्धि गामाणुगाम दूइज्जमाणे णो आय 1. (क) आचा० टीका पत्र 382 (ख) निशीथ चूणि में एक गाथा इस सम्बन्ध में मिलती है दुविधा तिविधा य तसा भीता बाडसरणाणि कंखेज्जा। णोलेज्ज व तं वाणं, अन्तराए य जं चऽपणं // 4123 // -निशीथ चूणि उ०१२ पृ० 345 // - त्रस दो या तीन प्रकार के होते हैं। वे भयभीत होकर वाड या शरण चाहेंगे / साधु उन्हें अन्य दिशा में प्रेरित न करे / ऐसा करके साधु चरते हुए पशु-पक्षियों के चारा-दाना खाने में अन्तराय डालता है। इसके अतिरिक्त वे भागते हुए जो कुछ करते हैं, इसका कोई ठिकाना नही है। 2. आचा• टीका पत्र 382 3. चूणि में इस सूत्र का भावार्थ यों दिया है-'से भिक्खू वा 2 आरिय-उवज्झाएहि समगं गच्छं नो हत्यादि संघति / ' अर्थात-साधु आचार्य-उपाध्यायों के साथ विहार करते हुए उनके हाथ आदि का स्पर्श न करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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