________________ 158 आचाररांग नत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध जो प्रमत्त (विषयादि प्रमादों से युक्त) है, उन्हें निर्ग्रन्थ धर्म से बाहर समझ, (देख) / अतएक अप्रमत्त होकर परिव्रजन-विचरण कर।। (और) इस (परिग्रहविरतिरूप) मुनिधर्म का सम्यक परिपालन कर। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- 'एतेसु चेव परिम्गहातो'-इस वाक्य का आशय बहुत गहन है। वृत्तिकार ने इसका रहस्य खोलते हुए कहा है-परिग्रह (चाहे थोड़ा सा भी हो, सूक्ष्म हो) सचित्त (शिष्यशिष्या, भक्त, भक्ता का) हो या अचित्त (शास्त्र, पुस्तक, वस्त्र, पात्र, क्षेत्र, प्रसिद्धि प्रादि का) हो, अल्प मूल्यवान् हो या बहुमूल्य, थोड़े से वजन का हो या वजनदार, यदि साधक की मूर्छा, ममता या प्रासक्ति इनमें से किसी भी पदार्थ पर थोड़ी या अधिक है तो महाव्रतधारी होते हुए भी उसकी गणना परिग्रहवान् गृहस्थों में होगी। इसका दूसरा प्राशय यह भी है-इन्हीं षड्जीवनिकायरूप सचित्त जीवों के प्रति या विषयभूत अल्पादि द्रव्यों के प्रति मूर्छा–ममता करने वाले साधक परिग्रहवान् हो जाते हैं / इस प्रकार अविरत होकर भी स्वयं विरतिवादी होने की डींग हांकने वाला साधक अल्पपरिग्रह से भी परिग्रहवान् हो जाता है / प्राहार-शरीरादि के प्रति जरा-सी मूर्छा-ममता भी साधक को परिग्रही बना सकती है, अत: उसे सावधान (अप्रमत्त) रहना चाहिए।' __'एतदेवेगेसि महन्मयं भवति'- इस वाक्य में 'एगेसि' से तात्पर्य उन कतिपय साधकों से है, जो अपरिग्रहवत धारण कर लेने के बावजूद भी अपने उपकरणों या शिष्यों आदि पर मूर्छाममता रखते हैं। जैसे गृहस्थ के मन में परिग्रह की सुरक्षा का भय बना रहता है, वैसे ही पदार्थों (सजीव-निर्जीव) के प्रति ममता-मूर्छा रखने वाले साधक के मन में भी सुरक्षा का भय बना रहता है। इसीलिए परिग्रह को महाभय रूप कहा है। अगर इस कथन का साक्षात् अनुभव करना हो तो महापरिग्रही लोगों के वृत्त (चरित्र) या वित्त (स्थिति) को देखो कि उन्हें अनिश जान को कितना खतरा रहता है। 'मोगवित्त'-का एक अर्थ--लोकवृना-लोगों का व्यावहारिक कष्टमय जीवन है। तथा दूसरा अर्थ-लोकसंज्ञा से है / आहार, भय, मैथुन और परिग्रहरूप लोक-संज्ञा को भय रूप जानकर उसको उपेक्षा कर दे। 'एतेषु चेव भचेर' का आशय यह है कि प्राचीन काल में स्त्री को भी परिग्रह माना जाता था। यही कारण है कि भगवान पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा की थी। ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह व्रत के अन्दर गतार्थ कर लिया गया था। ब्रह्मचर्य-भंग भी मोहवश होता है, मोह आभ्यन्तर परिग्रह में है। इसलिए ब्रह्मचर्यभंग को अपरिग्रह व्रत-भंग का कारण समझा जाता है / इस दृष्टि से कहा गया है कि परिग्रह से विरत व्यक्तियों में ही वास्तव में ब्रह्मचर्य का अस्तित्व है। जिसकी शरीर और वस्तुओं के प्रति मूर्छा-ममता होगी, न वह इन्द्रिय-संयम रूप ब्रह्मचर्य का पालन कर सकेगा, न वह अन्य 1. प्राचा० शीला• टीका पत्रांक 187 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 188 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org