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________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उदेशक : सूत्र 154-156 157 155. से सुपडिबुद्ध सूवणोय' ति णच्चा पुरिसा! परमचक्खू ! विपरिक्कम / एतेसुदेव बंभचेरं ति बेमि / से सुतं च मे अज्मस्थं च मे बंधपमोक्खो तुज्मज्मत्येव / 156. एस्थ विरते अणगारे बोहरायं तितिक्खते। पमतबहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए। एवं मोणं सम्म अणुवासेज्जासि त्ति बेमि / ॥बोओ उद्देसओ समसो॥ 154. इस जगत् में जितने भी प्राणी परिग्रहवान् हैं, वे अल्प या बहुत, सूक्ष्म . या स्थूल, सचित्त (सजीव) या अचित्त (निर्जीव) वस्तु का परिग्रहण (ममतापूर्वक ग्रहण या संग्रह) करते हैं। वे इन (वस्तुओं) में (मूर्छा-ममता रखने के कारण) ही परिग्रहवान् हैं / यह परिग्रह ही परिग्रहियों के लिए महाभय का कारण होता है। साधको ! असंयमी–परिग्रही लोगों के वित्त--धन या वृत्त (संज्ञाओं) को देखो। (इन्हें भी महान भय रूप समझो) / जो (परिग्रहजनित) अासक्तियों को नहीं जानता, वह महाभय को पाता है / (जो अल्प, बहुत द्रव्यादि तथा शरीरादिरूप परिग्रह से रहित होता है उसे परिग्रहजनित महाभय नहीं होता। 155. (परिग्रह महाभय का हेतु है-) यह (वीतराग सर्वज्ञों द्वारा) सम्यक् प्रकार से प्रतिबुद्ध (ज्ञात) है और सुकथित है, यह जानकर, हे परमचक्षुष्मान् (एक मात्र मोक्षदृष्टिमान्) पुरुष ! तू (परिग्रह आदि से मुक्त होने के लिए) पुरुषार्थ (पराक्रम) कर। (जो परिग्रह से विरत हैं) उनमें ही (परमार्थतः) ब्रह्मचर्य होता है / ऐसा मैं कहता हूँ। ___ मैंने सुना है, मेरी आत्मा में यह अनुभूत (सिसर) हो गया है कि बन्ध और मोक्ष तुम्हारी आत्मा में ही स्थित हैं। 156. इस परिग्रह से विरत अनगार (अपरिग्रहवृत्ति के कारण उत्पन्न होने वाले क्षुधा-पिपासा आदि) परीषहों को दीर्घ रात्रि--मृत्युपर्यन्त-जीवन भर सहन करे। 1. 'सूवणीयं ति णच्छा' के बदले चूणि में पाठ है-—'सुत अणुवियिति गच्चा'। अर्थ किया गया है "सुतेण अणुषिचितित्ता गणधरेहिं णच्चा'-अर्थात्-सूत्र से तदनुरूप चिन्तन करके गणधरों द्वारा प्रस्तुत है, इसे जान कर / 2. 'ममत्थं' के बदले चूणि में पाठ है—'अन्मस्पत।' अर्थ किया है-"ऊहितं गुपितं चितितं ति एकट्ठा / ' 'अध्यात्मितं' का अर्थ होता है-हिनं, गुणित या चिन्तित / यानी (मन में) ऊहापोह कर लिया है, चिन्तन कर लिया है, या गुणन कर लिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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