________________ पंचम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 117 अहिंसादि व्रतों का आचरणरूप ब्रह्मचर्य पालन कर सकेगा, और न ही गुरुकुलवास रूप ब्रह्मचर्य में रह पाएगा, और न वह प्रात्मा-परमात्मा (ब्रह्म) में विचरण कर पाएगा / इसीलिए कहा गया कि परिग्रह से विरत मनुष्यों में ही सच्चे अर्थ में ब्रह्मचर्य रह सकेगा। 'परमवस्तू-परमचक्षु के दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं-(१) जिसके पास परम-ज्ञानरूपी-चक्षु (नेत्र) हैं वह परमचक्षु है, अथवा (2) परम-मोक्ष पर ही एकमात्र जिसके चक्षु (दृष्टि) केन्द्रित है, वह भी गरमचक्षु है / // द्वितीय उद्देशक समाप्त // तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक मुनि-धर्म को प्रेरणा' 157. आवंती केआवंती लोगंसि अपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावतो / सोच्चा' वई मेधावी पंडियाणं निसामिया / समियाए धम्मे आरिएहि पवेदिते। जहेत्थ मए संधी सोसिते एवमण्णत्व संधी दुझोसए भवति / तम्हा बेमि पो णिहेज्ज' वीरियं / / 157. इस लोक में जितने भी अपरिग्रही साधक हैं, वे इन धर्मोपकरण आदि में (मू -ममता न रखने तथा उनका संग्रह न करने के कारण) ही अपरिग्रही हैं। मेधावी साधक (तीर्थकरों की आगमरूप) वाणी सुनकर तथा (गणधर एवं आचार्य आदि) पण्डितों के वचन पर चिन्तन-मनन करके (अपरिग्रही) बने / पार्यो (तीर्थंकरों) ने 'समता में धर्म कहा है।' (भगवान् महावीर ने कहा--) जैसे मैंने ज्ञान-दर्शन-चारित्र--- इन तीनों की सन्धि रूप (समन्वित--) साधना की है, वैसी साधना अन्यत्र (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रहित या स्वार्थी मार्ग में) दुःसाध्य-दुराराध्य है। इसलिए मैं कहता हूँ-(-तुम मोक्षमार्ग की इस समन्वित साधना में पराक्रम करो), अपनी शक्ति को छिपात्रो मत / 1. आचा. शीला. टीका पत्रांक 188 / 2. आचा. शीला. टीका पत्रांक 188 / 3. 'सोच्चा वई मेहा (धा) वी' इस पंक्ति का चूर्णिकार अर्थ करते हैं- “सोच्चा-मुणित्ता, यि-वयणं, मेहावी सिस्सामंतणं ।'अहवा सोच्चा मेहाविवयणं ति तित्थगरवयणं, संपडितेहि भण्णमाणं गणहरादीहि णिसामिया / अर्थात्-वचन सुनकर हे मेधावी ! ."अथवा मेधाविवचन = तीर्थकरवचन सुनकर गणधरादि द्वारा हृदयंगम किये गए उन वचनों को, प्राचार्यों (पण्डितों) द्वारा उन वचनों को। 4. 'आरिएहि' के बदले किसी प्रति में 'आयरिएहि' पाठ मिलता है, उसका अर्थ है-आचार्यों द्वारा। 5. 'यो णिहेज्ज' के बदले कहीं 'गो निष्हवेज्ज', या 'णो णिहेग्मा' पाठ है। अर्थ समान है। चूर्णिकार कहते हैं-'णिहण ति का गूहणं ति वा छायण ति वा एगट्ठा' --निवन (छुपाना), गूहन और छादन ये तीनों एकार्थक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org