________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 57-61 59. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णातं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। इच्चत्थं गढिए लोगे, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि वाउकम्मसारंभेणं वाउसत्थं समारभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिसति। 60. से बेमि–संति संपाइमा पाणा आहच्च संपतंति य / फरिसं च खल पुट्टा एगे संघायमावज्जति / जे तत्थ संघायमा जति ते तत्थ परिवाविज्जति / जे तत्य परियाविज्जति ते तत्थ उद्दायंति।। एत्य सत्यं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिगणाता भवंति / एत्थ सत्यं असमारभमाणस्य इच्चेते आरंभा परिणता भवंति / 61. तं परिणाय मेहावी णेव सयं वाउसत्थं समारभेज्जा, णेवण्णेहि वाउसत्य समारभावेज्जा, णेवऽणे वाउसत्थ समारभंते समणुजाणेज्जा। जस्सेते बाउसत्थसमारंभा परिष्णाया भवंति से हु मुणी परिप्णायकम्मे त्ति बेमि / 57. तु देख ! प्रत्येक संयमी पुरुष हिंसा में लज्जा ग्लानि का अनुभव करता है। उन्हें भी देख, जो 'हम गहत्यागी है यह कहते हा विविध प्रकार के शस्त्रों साधनों से वायुकाय का समारंभ करते हैं। वायुकाय-शस्त्र का समारंभ करते हुए अन्य अनेक प्राणियों की हिसा करते हैं। 58. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा विवेक का निरूपण किया है। कोई मनुप्य, इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सन्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोक्ष के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए स्वयं वायुकाय-शस्त्र का समारंभ करता है, दूसरों से वायुकाय का समारंभ करवाता है तथा समारंभ करने वालों का अनुमोदन करता है। ___ वह हिसा, उसके हित के लिए होती है। वह हिमा, उसकी अयोधि के लिए होती है। 59. वह अहिंसा-साधक, हिंसा को भली प्रकार से समझता हुया संयम में सुस्थिर हो जाता है। भगवान् के या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुनकर उन्हें यह ज्ञात होता है कि यह हिसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है। फिर भी मनुष्य हिंसा में आसक्त हुना, विविध प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय को हिमा करता है। वायु काय की हिंसा करता हुया अन्य अनेक प्रकार के जीवों की हिमा करता है। 60. मैं कहता हूँ-... संपातिम-- उड़ने वाले प्राणी होते हैं, वे वायु मे प्रताड़ित हो तर नीचे गिर जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org