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________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वे प्राणी वायु का स्पर्श ग्राघात होने से सिकुड़ जाते हैं। जब वे वायु-स्पर्श से संघातित होते/सिकुड़ जाते हैं, तब वे मूच्छित हो जाते हैं। जब वे जीव मूर्छा को प्राप्त होते हैं तो वहाँ मर भी जाते हैं। जो यहाँ वायुकायिक जीवों का समारंभ करता है, वह इन प्रारंभों से वास्तव में अनजान है। जो वायुकायिक जीवों पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता, वास्तव में उसने प्रारंभ को जान लिया है। 61. यह जानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं वायुकाय का समारंभ न करे / दूसरों से वायुकाय का समारंभ न करवाए। वायुकाय का समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे। जिसने वायुकाय के शस्त्र-समारंभ को जान लिया है, वही मुनि दरिज्ञातकर्मा (हिंसा का त्यागी) है / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–प्रस्तुत सूत्रों में वायुकाय की हिंसा का निषेध है। वायु को सचेतन मानना और उसकी हिंसा से बचना--यह भी निर्ग्रन्थ दर्शन की मौलिक विशेषता है। ___ सामान्य क्रम में पृथ्वी, अप्, तेजस् वायु, वनस्पति, त्रस यों आना चाहिए था, किन्तु यहाँ पर क्रम तोड़कर वायुकाय को वर्णन के सबसे अन्त में लिया है। टीकाकार ने इस शंका का समाधान करते हुए कहा है-षट्काय में वायुकाय का शरीर चर्म-चक्षुषों से दीखता नहीं है, जबकि अन्य पांचों का शरीर चक्षुगोचर है। इस कारण वायुकाय का विषय--अन्य पाँचों की अपेक्षा दुर्बोध है / अतः यहाँ पर पहले उन पाँचों का वर्णन करके अन्त में वायुकाय का वर्णन किया गया है। विरति-बोध 62. एत्थं पि जाण उवादीयमाणा, जे आयारे ण रमंति आरंभमाणा विणयं वयंति छंदोवणीया अज्झोववण्णा आरंभसत्ता पकरेंति संगं / से वसुमं सव्वसमण्णागतपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं णो अपणोस / तं परिणाय मेहावी व सयं छज्जीवणिकायसत्थं समारंभेज्जा, गेवण्णेहि छज्जीवाणिकायसत्थं समारंभावेज्जा, णेवऽण्णे छज्जीवणिकायसत्थं समारंभंते समगुजाणेज्जा। जस्सेते छज्जीवणिकायसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुमी परिणायकम्भे त्ति बेमि। // सत्थपरिण्णा समत्तो।। 1 आचा० शीला० टोका पत्रांक 68 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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