________________ शय्यषणा : द्वितीय अध्ययन प्राथमिक - आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन का नाम 'शय्येवणा' है। 2 शय्या का अर्थ यहां लोक-प्रसिद्ध बिछौना, गद्दा या 'सेज' ही नहीं है, अपितु सोने-बैठने, भोजनादि क्रिया करने तथा आवश्यक, स्वाध्याय, जप, तप आदि धार्मिक क्रिया करने के लिए आवास स्थान, आसन, संस्तारक, सोने-बैठने के लिए पट्टा, चौकी आदि सभी पदार्थों का समावेश 'शय्या' में हो जाता है। संक्षेप में वसति-स्थान या आवास स्थान (उपाश्रयादि) तथा तदन्तर्गत शयनीय उपकरणों को 'शय्या' कहा जा सकता है।' * प्रस्तुत अध्ययन में क्षेत्रशय्या, कालशय्या तथा द्विविध भावशय्या को छोड़कर केवल उस द्रव्यशय्या का विवेचन ही विवक्षित है, जो संयमी साधुओं के योग्य हो / ' - द्रव्यशय्या तीन प्रकार की होती है-सचित्ता, अचित्ता, मिश्रा / * एषणा का अर्थ है-अन्वेषण, ग्रहण और परिभोग के विषय में संयम-नियम के अनुकूल चिन्तन-विवेक करना। - संयमी साधु के लिए योग्य द्रव्य शय्या के अन्वेषण, ग्रहण और परिभोग के सम्बन्ध में कल्प्य-अकल्प्य का चिन्तन/विवेक करना शय्यैषणा है, जिसमें शय्या-सम्बन्धी एषणा का निरूपण हो, उस अध्ययन का नाम शय्यषणा-अध्ययन है। - धर्म के लिए आधारभूत शरीर के परिपालनार्थ एवं निर्वहन के लिए जैसे पिण्ड (आहार-पानी) की आवश्यकता होती है, वैसे ही शरीर को विश्राम देने, उसकी-- सर्दी-गर्मी रोगादि मे सुरक्षा करके धर्मक्रिया के योग्य रखने हेतु शय्या की आवश्यकता होती है। इसलिए 'पिण्डषणा' में 'पिण्ड-विशुद्धि' की तरह-'शय्येषणा' 1. (क) टीका पत्र 358 के आधार पर। (ख) दशवै० जिन० चूणि पृ. 276 / 2. आचारांग नियुक्ति मा० 298, 301 3. आचारांग नियुक्ति मा० 266 / 4. 'पाइअ सहमहण्णवो' पृ० 164 / 5. टीका पत्र 358 के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org