________________ द्वितीय अध्ययन : प्राथमिक 115 __ में 'शय्या-विशुद्धि' की तथा पिण्ड ग्रहण के समय गुण-दोष-विवेक की तरह शय्याग्रहण के समय भी शय्या के गुण-दोष-विवेक का प्रतिपादन किया गया है।' 5 शय्यैषणा अध्ययन के तीन उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में वसति के उद्गमादि दोषों तथा गृहस्थादि संसक्त वसति से होने वाली हानियों का चिन्तन है। 4 द्वितीय उद्देशक में वसति सम्बन्धी विभिन्न दोषों की सम्भावना एवं उससे सम्बन्धित विवेक एवं त्याग का प्रतिपादन है। 4 तृतीय उद्देशक में संयमी साधु के साथ वसति में होने वाली छलनाओं से सावधान रहने तथा सम-विषम बसति में समभाव रखने का विधान है। 4. प्रस्तुत अध्ययन सूत्र संख्या 412 से प्रारम्भ होकर 463 पर समाप्त होता है। 1. (क) आचारांम नियुक्ति गा. 302 / (ख) टीका पत्र 356 के आधार पर। 2. (क) आचारांग नियुक्ति गा० 303; 304 / (ख) टीका पत्र 356 के आधार पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org