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________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय अ तस्कन्ध कालेणं अणुपविसेज्जा',२ [त्ता तस्थितरातिरेहि कुलेहि सामुदाणियं एसियं वेसियं पिउवायं एसित्ता आहारं आहारज्जा। 392. अह सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आधाकम्मियं असणं वा 4 उपकरेज्ज वा उवक्खडेज्ज वा / तं गतिओ तुसिणीओ उवेहेज्जा, आहरमेयं पच्चाइविखस्सामि / मातिट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा / से पुष्यामेव आलोएज्जा-आउसो ति वा भणी ति वा णो खलु मे कप्पति आहाफम्मियं असणं वा 4 भोत्तए वा पायए वा, मा उवकरेहि, मा उवक्खडेहि। से सेवं वदंतस्स परो आहाकम्मियं असणं वा 4 उवक्खडेता आहट्ट दलएज्जा। तहप्पगारं असणं वा 4 अफासुर्य लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 360. यहाँ (जगत में) पूर्व में, पश्चिम में, दक्षिण में या उत्तर दिशा में कई सद्गृहस्थ, उनको गृहपलियां, उनके पुत्र-पुत्री, उनकी पुत्रवधू, उनकी दास-दासी, नौकर-नौकरानियां होते हैं, वे बहुत श्रद्धावान् होते हैं और परस्पर मिलने पर इस प्रकार बातें करते हैं-"ये पूज्य श्रमण भगवान् शीलवान् ब्रतनिष्ठ, गुणवान्, संयमी. आस्रवों के निरोधक, ब्रह्मचारी एवं मैथुनकर्म से निवृत होते हैं / आधार्मिक अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, खाना-पीना इन्हें कल्पनीय नहीं है / अतः हमने अपने लिए जो आहार बनाया है, वह सब हम इन श्रमणों को दे देंगे, और हम अपने लिए बाद में अशनादि चतुर्विध आहार बना लेंगे।" उनके इस प्रकार के वार्तालाप को सुनकर तथा (दूसरों से) जानकर, साधु या साध्वी इस प्रकार के (आधार्मिक आदि दोषयुक्त) अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर मिलने पर ग्रहण न करे। 361. शारीरिक अस्वस्थता तथा वृद्धावस्था के कारण एक ही स्थान पर स्थिरवास करने वाले या ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले साधु या साध्वी, किसी ग्राम में यावत् राजधानी में भिक्षाचर्या के लिए जब गृहस्यों के यहां जाने लगे, तब यदि वे यह जान जाएं कि इस गांव में यावत् राजधानी में किसी (अमुक) भिक्षु के पूर्व-परिचित (माता-पिता आदि सम्बन्धीजन) या पश्चात्-परिचित सास-ससुर आदि--गृहस्थ, गृहस्थपत्नी, उसके पुत्र-पुत्री, पुत्रवधू, दास-दासी, नौकर-नौकरानियां आदि श्रद्धालुजन रहते हैं तो इस प्रकार के घरों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार पानी के लिए जाए-आए नहीं। 1. यहाँ 2' का चिन्ह 'अणुपविसिसा' का सूचक है। 2. इस वाक्य का चूर्णिमान्य पाठान्तर इस प्रकार है-अह से काले पविठ्ठस्स वि उवक्खसिज्जा / अर्थात्--यदि भिक्षाकाल में प्रविष्ट होने पर भी वह भोजन तैयार करे। 3. आहडमेयं पच्चाइक्खिस्सामि के स्थान पर पाठान्तर मानकर चूर्णिकार अर्थ करते हैं- आहूतं पडिया इक्खिस्स- अर्थात् गृहस्थ को पास में बुला कर मना कर दूंगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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