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________________ पन्द्रहयाँ अध्ययन : सूत्र 754 ___ 'देवच्छंदयं' आदि पदों की व्याख्या---'देवच्छंदय' का अर्थ प्राकृतशब्दकोष में मिलता है—देवच्छंदक= जिन देव का आसन स्थान / जानविमाणं = सवारी या यात्रावाला विमान / 'वेउम्विएणं समुग्धाएण समोहणति = वैक्रियसमुद्घात करता है / समुद्घात एक प्रकार की विशिष्ट शक्ति है, जिसके द्वारा आत्म-प्रदेशों का संकोच-विस्तार किया जाता है / वैक्रिय शरीर जिसे मिला हो अथवा वैक्रियलब्धि जिसे प्राप्त हो, वह जीव वैक्रिय करते समय अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीरपरिमाण और लम्बाई में संख्येय योजनपरिमाण दण्ड निकालता है और पूर्वबद्ध वैक्रिय शरोर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है / वैक्रिय समुद्घात वैक्रिय के प्रारम्भ करने पर होता है। णिसोयाति =बिठाता है। अन्भंगेति = तेलमर्दन करता है। उल्लोलेति = उद्वर्तन-उबटन करता है। मज्जावेति = स्नान कराता है / जस्स जतबलं सहस्सेणं = जिसका यंत्रबल (शरीर को शीतल करने की नियंत्रण शक्ति) लाख गुनी अधिक हो। इसके बदले पाठान्तर मिलता है'जस्स य मुल्लं सय-साहस्सेग' इसका अर्थ होता है जिसका मूल्य एक लाख स्वर्णमुद्रा हो। 'तिपडोलतितएणं साहिएणं' = तीन पट लपेट कर सिद्ध किया बनाया हुआ / अणुलिपति = शरीर में यथा स्थानलेप करता है / ईसिणिस्सासवातवोज्झं =थोड़े-से निःश्वासवायु से उड़जाने योग्य वरणगरपट्टणुग्गतं =-श्रेष्ठनगर और व्यावसायिक केन्द्र (पत्तन) में बना हुआ। अस्सलालपेलयं = अश्व की लार के समान श्वेत, या कोमल / छयायरियकणगचितंतकम्म = कुशल शिल्पाचार्यों द्वारा सोने के तार से जिसकी किनारी बांधी हई है। 'णियंसावेति'--पहनाता है। पालंब-सुतपट्ट-मउडरयणमालाइ = लम्बा गले का आभूषण, रेशमी धागे से बना हुआ पट्ट-पहनने का वस्त्र, मुकुट और रत्नों की मालाएँ / 'आविधावेति' = पहनाता है / गंथिम-वेढिम-पूरिम संघातिमेणं मल्लेणं = गूंथी हुई, लपेटकर (वेष्टन से) बनाई हुई, संघातरूप (इकट्ठी करके) बनी हुई माला मे। ईहामिग-भेड़िया / रूरू = मृगविशेष / सरम-शिकारी जाति का एक पशु, सिंह, अष्टापद या वानर विशेष / ' 'जंतजोगजुतं - यंत्रयोग (पुत्तलिकायंत्र) से युक्त। अच्चीसहस्समालिणीयं = सहस्रकिरणों से सूर्यसम सुशोभित। सुणिरूवितमिसमिसेतरूवं उसका चमचमाता हुआ रूप भलीभांति वर्णनीय था। असहस्सकलितं = सहस्ररूपों में भी उसका आकलन नहीं हो सकता था। 'भिसमाणं भिब्भिसमाणं = चमकती हुई, विशेषप्रकार से चमकतो हुई। चक्खुल्लोयणलेस्सं -- चक्षुओं से लेशमात्र ही अवलोकनीय-अर्थात् नेत्रों को चकाचौंध कर देनेवाला। मुत्ताहडमुत्तजालतरोयितं = उसका सिरा (किनारा) मोती और मोतियों की जाली से सुशोभित था। तवणीय-पवर-लंबूस-पलंबत मुत्तवाम = सोने के बने हुए कन्दुकाकार आभूषणों से युक्त मोतियों की मालाएं उसमें लटक रही थीं। 1. (क) पाइअ-सहमहणवो पृ० 478, 867, 388, 123, 562, 880, 720 (ख) जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह भा०२ पृ० 288 (ग) आचारांगचूणि मू० पा० टि० पृ० 268, 266 (घ) आचारांग (अर्थागम भा० 1) पृ० 155 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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