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________________ 384 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध वायु से उड़ने वाला, श्रेष्ठ नगर के व्यावसायिक पत्तन में बना हुआ, कुशल मनुष्यों द्वारा प्रशंसित, अश्व के मुह की लार के समान सफेद और मनोहर चतुर शिल्पाचार्यों कारीगरों) द्वारा सोने के तार से विभूषित और हंस के समान श्वेत वस्त्रयुगल पहनाया / तदनन्तर उन्हें हार, अर्द्ध हार, वक्षस्थल का सुन्दर आभूषण, एकावली, लटकती हुई मालाएं, कटिसूत्र, मुकुट और रत्नों की मालाएं पहनाई / तत्पश्चात् भगवान् को ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम और संधातिम-इन चारों प्रकार की पुष्पमालाओं से कल्पवृक्ष की तरह मुसज्जित किया / उसके बाद इन्द्र ने दुबारा पुनः वैक्रियसमुद्घात किया और उससे तत्काल चन्द्रप्रभा नाम की एक विराट् सहस्रवाहिनी शिविका का निर्माण किया / वह शिविका ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मगर, पक्षिगण, बन्दर, हाथी, रुरु, सरभ, चमरी गाय, शार्दूलसिंह आदि जीवों तथा वनलताओं से चित्रित थी। उस पर अनेक विद्याधरों के जोड़े यन्त्रयोग से अंकित थे। इसके अतिरिक्त वह शिविका (पालखी) सहस्र किरणों से सुशोभित सूर्य-ज्योति के समान देदीप्यमान थी, उसका चमचमाता हुआ रूप भलीभांति वर्णनीय था, सहस्र रूपों में भी उसका आकलन नहीं किया जा सकता था, उसका तेज नेत्रों को चकाचौंध कर देने वाला था। उस शिविका में मोती और मुक्ताजाल पिरोये हुए थे। सोने के बने हुए श्रेष्ठ कन्दुकाकार आभूषण से युक्त लटकती हुई मोतियों की माला उस पर शोभायमान हो रही थी। हार, अर्द्ध हार आदि आभूषणों से सुशोभित थी। अत्यन्त दर्शनीय थी, उस पर पद्मलता, अशोकलता, कुन्दलता आदि तथा अन्य अनेक प्रकार की बनलताएँ चित्रित थीं / शुभ, मनोहर, कमनीय रूप वाली पंचरंगी अनेक मणियों, घण्टा एवं पताकाओं में उसका अग्रशिखर परिमण्डित था। इस प्रकार वह शिविका अपने आप में शुभ, सुन्दर और कमनीय रूप वाली, मन को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय और अति सुन्दर थी।। विवेचन--शिविकानिर्माण और दीक्षा की तैयारी--प्रस्तुत सूत्र में विस्तार से वर्णन है कि इन्द्र ने भगवान के अभिनिष्क्रमण के लिए वैक्रिय समुदघात करके देवच्छन्दक एवं शिविका आदि का निर्माण किया, साथ ही देवछंद में निर्मित पादपीठ सहित सिंहासन पर विराजमान करके उनके शरीर पर शतपाक-सहस्रपाक तैलमर्दन, सुगन्धित द्रव्यों से उबटन और बहुमूल्य गोशीर्ष चन्दन का लेप किया, उन्हें स्नान कराया, बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण पहनाए / शक्रेन्द्र यह सब कार्य भक्तिवश करता है, क्योंकि वह जानता है कि मुझे जिस धर्मपालन आदि के प्रताप से इन्द्रपद मिला है, उस परमधर्म तीर्थ के ये प्रवर्तक बनने जा रहे हैं, ये धर्म-बोध के दाता, उपदेशक, निष्ठापूर्वक पालक होंगे, इसलिए इनके द्वारा मुझ जैसे अनेक लोगों का कल्याण होगा / इन्द्र सोचता है-से महान् उपकारी महापुरुष की जितनी भक्ति की जाए, उतनी थोड़ी है।' 1. आचारांग मूलपाठ सटिप्पण पृ० 268-266 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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