________________ 402 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध से हटाता है / जो मन पापकर्ता, सावद्य (पाप ने युक्त) है, क्रियाओं से युक्त है कर्मों का आस्रवकारक है, छेदन-भेदनकारी है, क्लेश-द्वेषकारी है परितापकारक है। प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है। इसप्रकार के मन (मानसिक विचारों) को धारण (ग्रहण) न करे। मन को जो भलीभांति जान कर पापमय विचारों से दूर रखता है, वही निर्ग्रन्थ है। जिसका मन पापों (पापमय विचारों) से रहित है,' (वह निर्ग्रन्थ है।) यह द्वितीय भावना है। (4) इसके अनन्तर तृतीय भावना यह है-जो साधक वचन का स्वरूप भलीभांति जान कर सदोषवचनों का परित्याग करता है, वह निर्ग्रन्थ है। जो वचन पापकारी, सावध, क्रियाओं से युक्त, कर्मों का-आस्रवजनक, छेदन भेदनकर्ता, क्लेश द्वेषकारी है, परितापकारक है, प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है; साधु इस प्रकार के वचन का उच्चारण न करे। जो वाणी के दोषों को भलीभांति जानकर सदोष वाणी का परित्याग करता है, वही निग्रन्थ है / उसकी वाणी पापदोष रहित हो, यह तृतीय भावना है। (4) तदनन्तर चौथी भावना यह है- जो आदानभाण्डमात्र निक्षेपण समिति से युक्त है, वह निर्गन्थ है। केवली भगवान् कहते है - जो निम्रन्थ आदान भाण्ड मात्र निक्षेपणसमिति से रहित है. वह प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों का अभिघात करता है, उन्हें आच्छादित कर देता है—दबा देता है, परिताप देता है, चिपका देता है या पीड़ा पहुंचाता है। इसलिए जो आदान-भाण्ड (मात्र) निक्षेपणा समिति से युक्त है, वही निग्रंथ है, जो आदानभाण्ड (मात्र) निक्षेपणा समिति से रहित है, वह नहीं। यह चतुर्थ भावना है। (5) इसके पश्चात् पाँचवी भावना यह है-जो साधक आलोकित पान-भोजन-भोजी होता है, वह निम्रन्थ होता है, अनालोकित-पान-भोजन-भोजी नहीं / केवली भगवान् कहते हैं--जो बिना देखे-भाले ही आहार-पानी गवन करता है, वह निग्रंथ प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का हनन करता है यावत् उन्हें पीड़ा पहुंचाता है। अत: जो देखभाल कर आहार-पानी का सेवन करता है, वही निर्ग्रन्थ है, बिना देखे-भाले. आहार पानी करने वाला नहीं। यह पंचम भावना' है। 776. इस प्रकार पंचभावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत प्राणातिपात विरमणरूप प्रथम महाव्रत का सम्यक् प्रकार काया में स्पर्श करने पर, उसका पालन करने पर, गृहीत महाबत को भलीभांति पार लगाने पर, उसका कीर्तन करने पर, उसमें अवस्थित रहने पर, भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है। हे भगवन् ! यह प्राणातिपातविरमणरूप प्रथम महाबत है। विवेचन-प्रथम महाव्रत को पांच भावनाएं--प्रस्तुत सूत्र 778 में प्रथम महाव्रत की पांच भावनाओं का सांगोपांग निरूपण है। तथा सू० 776 में पांच भावनाओं से समन्वित प्रथम महाव्रत की सम्यक् आराधना कैसे हो सकती है ? इसके लिए 5 क्रम बताए हैं-(१) स्पर्शना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org