________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 778-76 403 (2) पालना, (3) तीर्णता, (4) कीर्तना और (5) अवस्थितता। सर्वप्रथम सम्यक् श्रद्धा-प्रतीति पूर्वक महाव्रत का ग्रहण करना स्पर्शना है, ग्रहण के बाद उसका शक्तिभर पालन करना उसका सुरक्षण करना पालना है। उसके पश्चात् जो महाबत स्वीकार कर लिया है, उसे अन्त तक पार लगाना, चाहे उसमें कितनी ही विघ्न-बाधाएं, रुकावटें आएं, कितने ही भय या प्रलोभन आएं, परन्तु कृत निश्चय से पीछे न हटना, जीवन के अन्तिमश्वास तक उसका पालन करनातीर्ण होना है। साथ ही स्वीकृत महाब्रत का महत्त्व समझ कर उसकी प्रशंसा करना, दूसरों को उसकी विशेषता समझाना-कीर्तन करना है। कितने ही झंझावात आएँ, भय या प्रलोभन आएं गृहीत महाब्रत में डटा रहे, विचलित न हो-यह अवस्थितता है। भावना क्या और किसलिए-चूर्णिकार ने विवेचन करते हुए कहा है-आत्मा को उन प्रशस्त भावों से भावित करना भावना है। जैसे शिलाजीत के साथ लोहरसायन की भावना दी जाती है, कोद्रव की विष के साथ भावना दी जाती है, इसीप्रकार ये भावनाएँ हैं। ये चारित्र भावनाएं हैं / महाव्रतों के गुणों में वृद्धि करने हेतु ये भावनाएं बताई गई है। प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएं प्रस्तुत में संक्षेप में इस प्रकार हैं-(१) ईर्यासमिति से युक्त होना, (3) मन को सम्यक् दिशा में प्रयुक्त करना, (3) भाषा समिति या वचनगुप्ति का पालन करना, (4) आदान-भाण्ड-मात्र निक्षेपणासमिति का पालन करना और (5) अवलोकन करके आहार-पानी करना / समवायांग सूत्र में इसी क्रम से प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएँ बताई गई हैं-"पुरिमपच्छिममाणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणवीस भावणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-'इरियासमिई, मणगुत्ती, वयगुत्ती, आलोयभायणभोयणं, आदाणमंडमत्तनिवखेवणासमिई।" आवश्यक सूत्र चूणि प्रतिक्रमणाध्ययन में पांच भाववाओं का इस प्रकार का क्रम मिलता है- "इरियासमिए' सया जते, उवेह भुजज्ज य पाणभोयणं / ___ आदाणनिक्खेव दुगुछ संजते, समाधिते संजमती मणो-वयी // 1 // आचारांगचूर्णिकार ने पांचों महाव्रतों में से प्रत्येक की क्रमशः पांच-पांच भावनाएँ बताई हैं। वह पाठ वृत्तिकार शीलाचार्य सम्मत पाठ से कुछ भिन्नता रखता है। चूर्णिकार सम्मत क्रम इस प्रकार है-(१) ईयसमिति युक्त हो, (2) आलोकित पान-भोजन-भोजी, 1. चूर्णिकार सम्मत पाठ में प्रथम महाव्रत की सम्यक् आराधना के लिए कुछ अतिरिक्त पाठ भी है-- 'इच्चताहि पचहि भावणाहिं पढम महन्वतं अहासतं अहाकल्प अहामग्ग अहातच्च सम्म काएण फासितं पालितं सोभितं तीरितं किट्टित आराहित आणाए अणुपालितं भवति / "- इन पांच भावनाओं से प्रथम महाव्रत यथासूत्र यथाकल्प यथामार्ग यथातथ्य रूप में काया से सम्यक् स्पशित, पालित, शोधित, तीरित, कीर्तित अनुपालित होने पर आज्ञा से आराधित हो जाता है।-सं० / 'आचारांग चूणि मू० पा० टि 10 २७८'-तम्हा वुत्ते पढममहत्वए। तस्य उपबू धनार्थ. भावनादर्शना / भावनाचोक्ता। चारित्रस्य भावनेयमुपदिष्ट्यते। भावयतीति भावना, यथा शिलाजतो: आयसं भावनं, विषस्य कोद्र वा / सिद्धार्थ गाहा / एवं इमाभावना।' 4. समवायांग सूत्र 5. आवश्यक चणि प्रतिक्रमणाध्ययन पृ०-१४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org