________________ 146 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध उपहार रूप में प्राप्त, भेंट दिये हुए गृह, वट्टति = उपयोग में लाते हैं / वहवे समणजाते अनेक प्रकार के श्रमणों-पंचविध श्रमणों को, एमं समणजातं सिर्फ एक प्रकार के निर्गन्थ श्रमणवर्ग को, उवागच्छति आकर रहते हैं, ठहरते हैं। 'छावणतो' का तात्पर्य है--संयमी साधु के लिए गृहस्थ मकान पर छप्पर छाता है, या मकान पर छत डालता है। संथार-दुवारपिहणतो- का तात्पर्य है--साधु के लिए ऊबड़-खाबड़ संस्तारक भूमि-सोने की जगह को समतल करवाता है, तथा द्वार को बन्द करने या ढकने के लिए कपाट आदि बनवाता है। या द्वार को बन्द करवाता है। दुपक्खं ते कम्म सेवंति-वृत्तिकार ने इस पंक्ति की व्याख्या यों की है "द्रव्य स वे साधुओषी हैं, किन्तु साधु जीवन में आधाकर्म-दोष युक्त उपाश्रय (वसति) के सेवन के कारण भाव से गृहस्थ हैं। एक ओर राग और एक ओर द्वेष है, एक ओर ईर्यापथ है तो दूसरी ओर साम्परायिक है, इस प्रकार द्रव्य से साधु के और भाव से गृहस्थ के कर्मों का सेवन करने के कारण वे 'द्विपक्षकर्म' का सेवन करते हैं। एगपषख ते कम्म सेवंति-वे (साधु) एक पक्षीय यानी साध-जीवन के लिए कल्पनीय, उचित, उपयुक्त कर्म (कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, शयनासनादि क्रियाएँ) करते हैं। 442. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं / सूत्र 442. यह (शय्यषणाविवेक) ही उस भिक्षु या भिक्षुणी के लिए (ज्ञानादि आचारयुक्त भिक्षुभाव की) समग्रता है। / बीओ उद्देसओ समत्तो॥ तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक उपाश्रय-छलना-विवेक 443. से य गो सुलभे' फासुए उंछे अहेसणिज्जे, णो य खलु सुद्ध इमेहि पाहु.हि, तंजहा -छावणतो लेवणतो संथार-दुवार पिहाणतो पिंडयातेसणाओ। से य भिक्खू चरियारते ठाण 1. से य जो सुलभे० आदि पंक्तियों का रहस्यार्थ चूर्णिकार के शब्दों में संबंधो अफासुगाणं विवेगो, फासुगाणं गहणं वसहीणं / से य णो सुलभे फासुए उबस्सए / आहारो सुहं सोहिज्जति, वसही दुक्खं उछ अण्णातं अण्णातेण, कतरे उछ ? अहेसणिज्जे जहा एसणिज्जे / सड्ढो पुच्छति उज्जुगं साहुं--किमत्य साहुणो ण अच्छंति ? भणति-पडिस्सतो पत्थि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org