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________________ बारसमं अज्झयणं 'रूव' सत्तिक्कयं रूप सप्तक : बारहवाँ अध्ययन : पंचम सप्तिका रूप-दर्शन-उत्सकता निषेध 686. से भिक्खू वा 2 अहावेगइयाई रूवाइपासति, तंजहा---गंथिमाणि वा वेढिमाणि वा पूरिमाणि वा संघातिमाणि वा कटकमाणि' वा पोत्थकम्माणि वा चित्तकम्माणि वा मणिकम्माणि वा दंतकम्माणि वा पत्तच्छेज्जकम्माणि वा विविहाणि वा वेढिमाई अण्णतराई वा] तहप्पगाराइविरूवरूवाइ चक्खुदंसणवडियाए णो अभिसंधारेज्ज गमणाए। एवं नेयव्वं जहा सद्दपडिमा सव्वा वाइत्तवज्जा रूवपडिमा वि। 686. साधु या साध्वी अनेक प्रकार के रूपों को देखते हैं, जैसे-गूंथे हुए पुष्पों से निष्पन्न स्वस्तिक आदि को, वस्त्रादि से वेष्टित या निष्पन्न पुतली आदि को, जिनके अन्दर कुछ पदार्थ भरने से पुरुषाकृति बन जाती हो, उन्हें, अनेक वर्षों के संघात से निर्मित चोलकादिको, काष्ठ कर्म मे निर्मित रथादि पदार्थों को, पुस्तकर्म से निर्मित पुस्तकादि को, दीवार आदि पर चित्रकर्म से निर्मित चित्रादि को, विविध मणिकर्म से निर्मित स्वस्तिकादि को, दंतकर्म में निर्मित दन्तपुत्तलिका आदि को, पत्रछेदन कम से निर्मित विविध पत्र आदि को, अथवा अन्य विविध प्रकार के वेष्टनों से निष्पन्न हुए पदार्थों को, तथा इसीप्रकार के अन्य नाना पदार्थों के रूपों को, किन्तु इनमें से किसी को आँखों से देखने की इच्छा से साधु या साध्वी उस ओर जाने का मन में विचार न करे। इस प्रकार जैस शब्द सम्बन्धी प्रतिमा का (11 वें अध्ययन में) वर्णन किया गया है, वैसे ही यहां चतुर्विध आतोद्यवाद्य को छोड़कर रूपप्रतिमा के विषय में भी जानना चाहिए। विवेचन-एक ही सूत्र द्वारा शास्त्रकार ने कतिपय पदार्थों के रूपों के तथा अन्य उस प्रकार के विभिन्न रूपों के उत्सुकता पूर्वक प्रेक्षण का निषेध किया है। सूत्र के उत्तरार्द्ध में एक पंक्ति द्वारा शास्त्रकार ने उन सब पदार्थों के रूपों को उत्कण्ठापूर्वक देखने का निषेध किया 1. 'कट्ठकम्माणि वा' के बदले पाठान्तर हैं-"कट्ठाणि वा, 'कठकम्माणि वा मालकम्माणि वा।" अर्थात् काष्ठकर्म द्वारा निर्मित पदार्थों के, तथा माल्यकर्म द्वारा निष्पन्न माल्यादि पदार्थों के / 2. 'पत्तच्छेज्जकम्माणि' के बदले पाठान्तर है-'पत्तच्छेयककम्माणि' 3. वृत्तिकार इस पंक्ति का स्पष्टीकरण करते हैं-"एवं शब्द सप्तककसूत्राणि चतुर्विधातोद्यरहितानि सर्वाण्यपीहाऽयोज्यानि / " अर्थात् इस प्रकार शब्दसप्तक अध्ययन के चतुर्विध आतोध (वाद्य) रहित सूत्रों को छोड़ कर शेष सभी सुत्रों का आयोजन यहाँ कर लेना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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