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________________ 26. भावारांग सूत्र-प्रथम श्रुतकन्ध अग्नि-सेवन-विमोक्ष 211. तं भिक्खु सीतफासपरिवेवमाणगातं उबसंकमित्तु गाहावती या—आउसंतो समणा! णो खलु ते गामधम्मा उब्बाहंति ? आउसंतो' गाहावती ! णो खलु मम गामधम्मा उब्बाहंति / सीतफासं णो खलु अहं संचाएमि अहियासेत्तए / णो खलु मे कप्पति अगणिकायं उज्जालित्तए वा पज्जालित्तए वा कायं आयावित्तए वा पयावित्तए वा अणेसि वा वयणाओ। 212. सिया एवं वदंतस्स परो अगणिकायं उज्जालेत्ता पज्जालेत्ता कायं आयावेज्जा धा पयावेज्जा वा / तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणाए ति बेमि। - // तइओ उद्देसओ समत्तो॥ 211. शीत-स्पर्श से कांपते हुए शरीरवाले उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति कहे-आयुष्मान् श्रमण ! क्या तुम्हें ग्रामधर्म (इन्द्रिय-विषय) तो पीड़ित नहीं कर रहे हैं ? (इस पर मुनि कहता है) आयुष्मान् गृहपति ! मुझे ग्रामधर्म पीडित नहीं कर रहे हैं, किन्तु मेरा शरीर दुर्बल होने के कारण मैं शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ (इसलिए मेरा शरीर शीत से प्रकम्पित हो रहा है)। .. ('तुम अग्नि क्यों नहीं जला लेते ?' इस प्रकार गृहपति के द्वारा कहे जाने . पर मुनि कहता है.--) अग्निकाय को उज्ज्वलित करना, . प्रज्वलित करना, उससे शरीर .. को थोड़ा-सा भी तपाना या दूसरों को कहकर अग्नि प्रज्वलित करवाना अकल्प-.. नीय है। 212. (कदाचित् वह गृहस्थ) इस प्रकार बोलने पर अग्निकाय को उज्ज्वलित-. प्रज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा तपाए या विशेष रूप से तपाए। 1. चूणि में इस प्रकार का पाठान्तर हैवेति--'हे आउस अप्पं खलु मम गामधम्मा उम्बाहंति"--- इसका अर्थ किया गया है- "अप्पंति प्रभावे भवति थोवे य. एत्य प्रभावे ।'-अर्थात् मुनि कहता हैहे ग्रायुष्मन् ! निश्चय ही मुझे ग्रामधर्म बाधित नहीं करता।' 'अप्प' शब्द अभाव अर्थ में और थोड अर्थ में प्रयुक्त होता है। यहाँ अभाव अर्थ में प्रयुक्त है। 2. यहाँ भी चूणि में पाठान्तर है-“सोयफातं च हं जो सहामि अहियासित्तए-अर्थात्- मैं शीतस्पर्श को सहन नहीं कर सकता। 3. "सिया एवं' का अर्थ चुणिकार ने किया हैं--सिया-- कयायि, एवमवधारणे' सिया का अर्थ कदाचित् ___ तथा एवं यहाँ अवधारण--निश्चय अर्थ में है। 4. चूणि के अनुसार यहाँ पाठान्तर इस प्रकार है-"से एवं वयंतस्स परो पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कोतं पामिच्च अच्छिज्ज अणिसट्ठ अगणिकायं उज्जालित्ता पज्जालित्ता वा तस्स आतावेति वा पतावेति वा / तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमेत्ता आगवेज्जा अगासेवणाए ति बेमि / ' कदाचित् इस प्रकार कहते हुए (सुनकर) कोई पर (गृहस्थ) प्राण, भूत जीप और सत्त्वों का उपमर्दन रूप प्रारम्भ करके उस भिक्षु के उद्देश्य से खरीदी हुई, उधार ली हुई, छीनी हुई, दूसरे की चीज को उसकी अनुमति के बिना ली हुई वस्तु को अग्निकाय जलाकर, विशेष प्रज्वलित करके, उस भिक्षु के शरीर को थोड़ा या अधिक तपाए, तब वह भिक्षु उसे देखकर, आयम से उसके दोष जानकर उक्त गृहस्थ को बतादे कि मेरे लिए इसे सेवन करना उचित नहीं है / ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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