________________ 188 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध वहाए समुट्ठज्जा / अप्पुस्सुए जाव समाहीए / ततो संजयामेव ,उदगंसि पवजे (पवे) ज्जा। 487. से भिक्खू वा 2 उदगंसि पवमाणे णो हत्थेण हत्थं पादेण पादं काएण कार्य आसादेज्जा / से अणासादए अणासायमाणे ततो संजयामेव उदगंसि पवेज्जर। 488 से भिक्खू वा 2 उदगंसि पवमाणे णो उम्मुग्ग-णिमुग्गियं करेज्जा, मा मेयं उदयं करणेसु वा अच्छोसु वा णक्कंसि वा मुहंसि वा परियावज्जेज्जा, ततो संजयामेव उदगंसि पवेज्जा। 486. से भिक्खू वा 2 उदगंसि पवमाणे' बोधलियं पाउणेज्जा, खिप्पामेव उवधि विगिचेज्ज वा विसोहेज्ज बा, णो चेव णं सातिज्जेज्जा / 460. अह पुणेवं जाणेज्जा-पारए सिया उदगाओ तीरं पाउणित्तए / ततो संजयामेव उदउल्लेण वा ससणिण वा काएण दगतीरए चिट्ठज्जा। 461. से भिक्खू वा 2 उदउल्लं वा ससणिद्ध वा कार्य णो आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा संलिहेज्ज वा णिल्लिहेज्ज वा उव्वलेज्ज वा उव्वदृज्ज वा आतावेज्ज वा पयावेज्ज वा। अह पुणेवं जाणेज्जा-विगतोदए मे काए छिण्णसिणेहे / तहप्पगारं कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा जाव पयावेज्ज वा / ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा। 484. नौका में बैठे हुए गृहस्थ आदि यदि नौकारूढ़ मुनि से यह कहें कि आयुष्मन् श्रमण ! तुम जरा हमारे छत्र, भाजन वर्तन, दण्ड, लाठी, योगासन, नलिका, वस्त्र, यवनिका मृगचर्म, चमड़े की थैली, अथवा चर्म-छेदनक शस्त्र को तो पकड़े रखो; इन विविध शस्त्रों को तो धारण करो, अथवा इस बालक या बालिका को पानी पिला दो; तो वह साधु उसके उक्त वचन को सुनकर स्वीकार न करे, किन्तु मौन धारण करके बैठा रहे। 485. यदि कोई नौकारूढ़ व्यक्ति नौका पर बैठे हुए किसी अन्य गृहस्थ से इस प्रकार कहे-आयुष्मन् गृहस्थ ! यह श्रमण जड़ वस्तुओं की तरह नौका पर केवल भारभूत है, (न यह कुछ सुनता है, न कोई काम ही करता है !) अतः इसकी बाँहें पकड़ कर नौका से बाहर जल में फेंक दो।' इस प्रकार की बात सुनकर और हृदय में धारण करके यदि वह मुनि वस्त्रधारी है तो शीघ्र ही फटे-पुराने वस्त्रों को खोल कर अलग कर दे और अच्छे वस्त्रों को अपने शरीर पर अच्छी तरह बाँध कर लपेट ले, तथा कुछ वस्त्र अपने सिर के चारों ओर लपेट ले। 486. यदि वह साधु यह जाने कि ये अत्यन्त ऋ रकर्मा अज्ञानी जन अवश्य हो मुझे बांहें पकड़ नाव से बाहर पानी में फेंकेंगे / तब वह फेंके जाने से पूर्व ही उन गृहस्थों को सम्बो 1. पवमाणे के स्थान पर पाठान्तर है-पवदमाणे। अर्थ है-गिरता हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org