________________ 10. आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध विवेक बुद्धि से सुशोभित धीर यों विचार करे- इनका मूल है असंयम या कर्म और अग्र है-संयम-तप, या मोक्ष / ' __ 'पलिछिबियाणं णिवकम्मदंसी' का भावार्थ बहुत गहन है। तप और संयम के द्वारा रागद्वेषादि बन्धनों को या उनके कार्यरूप कर्मों को सर्वथा छिन्न करके आत्मा निष्कर्मदर्शी हो जाता है / निष्कर्मदर्शी के चार अर्थ हो सकते हैं-(१) कर्म रहित शुद्ध प्रात्मदर्शी,(२) राग-द्वेष के सर्वथा छिन्न होने से सर्वदर्शी, (3) वैभाविक क्रियाओं (कर्मों-व्यापारों) के सर्वथा न होने से प्रक्रियादर्शी और (4) जहाँ कर्मों का सर्वथा अभाव है, ऐसे मोक्ष का द्रष्टा / ' ११६वें सूत्र में मृत्यु से मुक्त प्रात्मा की विशेषताओं और उसको चर्या के उद्देश्य का दिग्दर्शन कराया गया है। दिट्ठभए या दिठ्ठपहे'-दोनों ही पाठ मिलते हैं। "विट्ठभए' पाठ अधिक संगत लगता है. क्योंकि प्रस्तत सत्र में भय की चर्चा करते हुए कहा है..."मनि इस जन्म-मरणादि रूप संसार का अवलोकन गहराई से करता है तो वह संसार में होने वाले जन्म-मरण, जरा-रोग प्रादि समस्त भयों का दर्शन-मानसिक निरीक्षण कर लेता है। फलतः वह संसार के चक्र में नहीं फँसता, उनसे बचने का प्रयत्न करता है / " आगे के 'लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी' आदि विशेषण उसी संदर्भ में अंकित किये गये हैं। 'दिठ्ठपहे' पाठ अंगीकृत करने पर अर्थ होता है-जिसने मोक्ष का पथ देख लिया है, अथवा जो इस पथ का अनुभवी है। सूत्र 112 से 117 तक शास्त्रकार का एक ही स्वर गूज रहा है-ज्ञाता-द्रष्टा बनो / ज्ञाता-द्रष्टा का अर्थ है-अपने मन की गहराइयों में उतर कर प्रत्येक वस्तु या विचार को जानो-देखो, चिन्तन करो, परन्तु उसके साथ राग और द्वेष को या इनके किसी परिवार को मत मिलाओ, तटस्थ होकर वस्तुस्वरूप का विचार करो, इसी का नाम ज्ञाता-द्रष्टा बनना है। इन सूत्रों में चार प्रकार के द्रष्टा (दर्शी) बनने का उल्लेख है-(१) समत्वदर्शी या सम्यक्त्वदर्शी, (2) प्रात्मदर्शी, (3) निष्कर्मदर्शी और (4) परमदर्शी। इसी प्रकार दृष्टभय/दृष्टपथ, अग्र और मल का विवेक कर जन्म, वद्धि, प्राणियों के साथ सूख-दुःख में ममत्व तथा प्रात्मैकत्व के प्रतिपक्षण आदि में भी द्रष्टा-ज्ञाता बनने का संकेत है। ___'कालकंखी'-साधक को मृत्यु की प्राकांक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि संलेखना के पाँच अतिचारों में से एक है---'मरणासंसप्पओगे'-मृत्यु की आशंसा-आकांक्षा न करना। फिर यहाँ उसे काल-कांक्षी बताने के पीछे क्या रहस्य है ? वृत्तिकार इस प्रश्न का समाधान यों करते हैंकाल का अर्थ है--मृत्युकाल, उसका आकांक्षी, अर्थात्-मुनि मृत्युकाल आने पर 'पंडितमरण' को आकांक्षा (मनोरथ) करने वाला होकर परिव्रजन (विचरण) करे। 'पंडितमरण' जीवन की सार्थकता है / पंडितमरण को इच्छा करना मृत्यु को जोतने को कामना है। 1. प्राचा० टीका पत्रांक 145 / 2. प्राचाटीका पत्रांक 145 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org