________________ 278 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध धर्मोपकरण आदि के ग्रहण का परिणाम( विचार) होता है, तब वह ग्रहण-भावाव ग्रह होता है। * उक्त पदार्थ मुख्यतया पांच कोटि के व्यक्तियों के अधीन होते हैं, जैसे कि 1. देवेन्द्र, 2. राजा (शासक), 3. गृहपति, 4. शय्यातर एवं 5. सार्मिक साधु वर्ग; अतः अवग्रह के अधिकारी होने से ये भी पंचविध अवग्रह कहलाते हैं। स्थण्डिलभूमि, वसति आदि ग्रहण करने से पूर्व यथावसर इनकी आज्ञा लेना आवश्यक है।' र अवग्रह से सम्बन्धित विविध प्रतिज्ञाएँ (संकल्प या अभिग्रह) करना अवग्रह-प्रतिमा है / विविध प्रकार के अवग्रहों तथा उनसे सम्बन्धित प्रतिमाओं का वर्णन होने के कारण इस अध्ययन का नाम 'अवग्रह-प्रतिमा' रखा गया है। र अवग्रह-प्रतिमा-अध्ययन के दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में अवग्रह-ग्रहण की अनिवार्यता एवं अवग्रह के प्रकार एवं याचनाविधि बताई है, द्वितीय उद्देशक में मुख्यतः विविध अवग्रहों की याचनाविधि का प्रतिपादन है। - यह अध्ययन सूत्र 607 से प्रारम्भ होकर मूत्र 636 पर समाप्त होता है। 1. (क) आचासंग नियुक्ति गा० 316 से 16 तक / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 402 / 2. आचासंग मूल पाठ एवं वृत्ति के आधार पर, पत्रांक 402 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org