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________________ नगम मध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 282-212 325 (1) सांप और नेवलों आदि द्वारा काटा जाना / (2) गिद्ध प्रादि पक्षियों द्वारा मांस नोचना / (3) चींटी, डाँस, मच्छर, मक्खी आदि का उपद्रव / (4) शुन्य मह में चोर या लंपट परुषों द्वारा सताया जाना / (5) सशस्त्र ग्रामरक्षकों द्वारा सताया जाना। (6) कामासक्त स्त्री-पुरुषों का उपसर्ग। (7) कभी मनुष्य-तिर्यञ्चों और कभी देवों द्वारा उपसर्ग / (8) जनशून्य स्थानों में अकेले या आवारागर्द लोगों द्वारा ऊटपटांग प्रश्न पूछ कर तंग करना। (9) उपवन के अन्दर की कोठरी आदि में घुसकर ध्यानावस्था में सताना आदि / ' वासस्थानों में परीक्षह-(१) दुर्गन्धित स्थान, (2) ऊबड़-खाबड़ विषम या भयंकर स्थान, (3) सर्दी का प्रकोप, (4) चारों ओर से बंद स्थान का प्रभाव प्रादि / परन्तु इन वासस्थानों में साधनाकाल में भगवान साढ़े बारह वर्ष तक अहर्निश यतनाशील, अप्रमत्त और समाहित होकर ध्यानमग्न रहते थे। यही बात शास्त्रकार कहते हैं- 'एतेहि मुगी सयहि "समाहिते मातो।' 'संसप्पगा य जे पाणा ....... --वृत्तिकार ने इस पद की व्याख्या की है--'भुजा से चलने वाले शून्य-गृह आदि में विशेष रूप में पाए जाने वाले सांप, नेवला आदि प्राणी।' 'पक्खिणो उवचरंति'–श्मशान आदि में गीध प्रादि पक्षी पाकर उपसर्ग करते थे। 'कुचरा उबचरंति...'–कुचर का अर्थ वृत्तिकार ने किया है- चोर, परस्त्रीलंपट आदि लोग कहीं-कहीं सूने मकान आदि में आकर उपसर्ग करते थे। तथा जब भगवान तिराहों या चौराहों पर ध्यानस्थ खड़े होते तो ग्रामरक्षक शस्त्रों से लैस होकर उनके पास आकर तंग किया करते / 'अदु गामिया....."इत्थी एगतिया पुरिसाय'-इस पंक्ति का तात्पर्य वत्तिकार ने बताया है-कभी भगवान अकेले एकान्त स्थान में होते तो ग्रामिक-इन्द्रियविषय-सम्बन्धी उपसर्ग होते थे, कोई कामासक्त स्त्री या कोई कामूक पुरुष पाकर उपसर्ग करता था। भगवान के रूप पर मुग्ध होकर स्त्रियां उनसे काम-याचना करतीं, जब भगवान उनसे विचलित नहीं होते तो वे क्षुब्ध और उत्तेजित रमणियां अपने पतियों को भगवान के विरुद्ध भड़कार्ती और वे (उनके पति आदि स्वजन) आकर भगवान को कोसते, उत्पीड़ित करते / ____ 'अयमसमे से धम्मे तुसिजीए-भगवान के न बोलने पर या पूछने पर जवाब न देने पर तुच्छ प्रकृति के लोग रुष्ट हो जाते, मारते-पीटते, सताते या वहाँ से निकल जाने को कहते / 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 307 / 3. आचा० शीला टीका पत्रांक 307 // 5. प्राचा• शोला टीका पत्रांक 307 / 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 307 / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 307 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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