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________________ 324 भातासंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वस्त्र पहनने-मोढ़ने अथवा आग जलाने आदि का) संकल्प नहीं करते। कभी-कभी रात्रि में (सर्दी प्रगाढ़ हो जाती तब) भगवान उस मंडप से बाहर चले जाते, वहाँ मुहूर्तभर ठहर फिर मंडप में आ जाते / इस प्रकार भगवान शीतादि परीषह समभाव से या सम्यक् प्रकार से सहन करने में समर्थ थे।७७।। 292. मतिमान् महामाहन महावीर ने इस विधि का प्राचरण किया। जिस प्रकार अप्रतिबद्धविहारी भगवान ने बहुत बार इस विधि का पालन किया, उसी प्रकार अन्य साधु भी आत्म-विकासार्थ इस विधि का आचरण करते हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-भगवान द्वारा सेवित बासस्थान-सूत्र 278 और 279 में उन स्थानों के नाम. बताए हैं जहाँ ठहरकर भगवान ने उत्कृष्ट ध्यान-साधना की थी। वे स्थान इस प्रकार हैं (1) आवेशन (खण्डहर)। (2) सभा / (3) प्याऊ / (4) दूकान / (5) कारखाने / (6) मंच / (7) यात्रीगृह / (8) पारामगृह / (9) गांव या नगर (10) श्मशान / (11) शून्य गृह / (12) वृक्ष के नीचे। भगवान की संयम-साधना के अंग-मुख्यतया 8 रहे है (1) शरीर-संयम / (2) अनुकूल-प्रतिकूल परीषह-उपसर्ग के समय मन-संयम / (3) आहार-संयम / (4) वासस्थान-संयम / (5) इन्द्रिय-संयम / (6) निद्रा-संयम / (7) त्रियासंयम / (8) उपकरण-संयम / भगवान की संयम-साधना का रथ इन्हीं 8 चक्रों द्वारा अन्त तक गतिमान रहा। वे इनमें से किसी भी अंग से सम्बन्धित आग्रह से चिपक कर नहीं चलते थे। शरीर और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए (आहार, निद्रा, स्थान, आसन आदि के रूप में) वे अपने मन में अनाग्रही थे। 'अपडिणे' शब्द का पुनः पुनः प्रयोग यह ध्वनित करता है कि सहजभाव से साधना के अनुकूल जैसा भी आचरण शक्य होता वे उसे स्वीकार लेते थे। अमुक आसनों तथा त्राटक आदि सहजयोग की क्रियाओं से शरीर को स्थिर, संतुलित और मोह-ममता रहित स्फूर्तिमान रखने का वे प्रयत्न करते थे। वे सभी प्रकार के संयम, आन्तरिक प्रानन्द, प्रात्मदर्शन, विश्वात्मचिन्तन आदि के माध्यम से करते थे। भगवान की निद्रा-संयम की विधि भी बहुत ही अद्भुत थी। वे ध्यान के द्वारा निद्रासंयम करते थे। निद्रा पर विजय पाने के लिए वे कभी खड़े हो जाते, कभी स्थान से बाहर जाकर टहलने लग / इस प्रकार हर सम्भव उपाय से निद्रा पर विजय पाते थे। __ वासस्थानों-शयनों में विभिन्न उपसर्ग--भगवान को वासस्थानों में मुख्य रूप से निम्नोक्त उपसर्ग सहने पड़ते थे--- 1. आचा० शीला टोका पाक 307 / 2. आचा० शीला०टीका पत्रांक 307-308 के आधार पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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