________________ नवम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 285-292 323 इससे रुष्ट होकर दुर्व्यवहार करते, फिर भी भगवान समाधि में लीन रहते, परन्तु उनसे प्रतिशोध लेने का विचार भी नहीं उठता // 74 // . ...... 288. उपवन के अन्तर-आवास में स्थित भगवान से पूछा-'यहाँ अन्दर कौन है ?' भगवान ने कहा-'मैं भिक्षु हूँ।' यह सुनकर यदि वे कोधान्ध होकर कहते --'शीघ्र ही यहाँ से चले जानो।' तब भगवान वहाँ से चले जाते / यह (सहिष्णता) उनका उत्तम धर्म है / यदि भगवान पर क्रोध करते तो वे मौन रहकर ध्यान में लीन रहते थे / / 75 // शीत-परीषह .. . . 289. जंसिप्पेगे' पवेति सिसिरे मारुए पवायंते। . . . तंसिप्पेगे अणगारा हिमवाते णिवायमेसंति / / 76 / / 290. संघाडीओ पविसिस्सामोरे एघा य समादहमाणा। पिहिता वा सक्खामो 'अतिदुक्खं हिमगसंफासा' // 77 // 291. संसि भगवं अपडिण्णे अहे विगडे अहियासए दविए। णिक्खम्म एगदा रातो चाएति भगवं समियाए // 7 // 292. एस विही अणुक्कतो माहणेण मतीमता। बहुसो अपडिण्णणं भगवया एवं रोयंति // 79 // त्ति बेमि / // बीओ उद्देसओ समत्तो। 289. शिशिर ऋतु में ठण्डी हवा चलने पर कई (अल्पवस्त्रवाले) लोग कांपने लगते, उस ऋतु में हिमपात होने पर कुछ अनगार भी निर्वातस्थान ढूँढ़ते थे।७६।। 290. हिमजन्य शीत-स्पर्श अत्यन्त दुःखदायी है, यह सोचकर कई साधु संकल्प करते थे कि चादरों में घुस जाएंगे या काष्ठ जलाकर किवाड़ों को बन्द करके इस ठंड को सह सकेंगे, ऐसा भी कुछ साधु सोचते थे / / 77 / / . 291. किन्तु उस शिशिर ऋतु में भो भगवान (निर्वात स्थान की खोज या 1. चर्णिकार ने इस पंक्ति की व्याख्या यों की है-“जति वि जम्हिकाले एते अन्नतिथिया गिहत्था वा णिवेदंति सिसिर, सिसिरे वा मारुतो पवायति भिसं वायति तसिप्पेगे अगतित्थिया"-जिस काल को ये अन्यतीर्थिक या गृहस्थ शिशिर कहते हैं, शिशि.र में ठंडी हवाएँ बहुत चलती हैं / उस काल में भी अन्यतीर्थिक लोग"..."। 2. इस पंक्ति के शब्दों का अर्थ चणिकार के शब्दों में-- "पविसिस्सामो = पाउणिस्सामो समिहातो कट्ठाई समाडहमाणा" अर्थात्-प्रविष्ट हो जायेंगे, आच्छादित कर (ढक) लेंगे / समिधा यानी लकड़ियों के ढेर से लकड़ियां निकालकर जलाते हैं। 3. चाएति का अर्थ चणिकार ने किया है.---'सहति' भावार्थ-~~-भगवं समियाए सम्भ, ण गारवभयट्ठाए वा सहति / अर्थात्-भगवान समताभाव से सम्यक सहन करते थे, गौरव या भय से नहीं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org