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________________ 322 भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम् स्थान-परीवह 285. इहलोइयाई परलोइयाई भीमाई अणेगरूबाई। अवि सुभिदुम्मिगंधाइं सद्दाई अणेगरूवाई // 72 // 286. अहियासए सया समिते फासाई - विरूवरूबाई। अरति रति अभिभूय रोयति माहणे अबहुवावी / / 7 / / 287. स जोह तत्य पुच्छिसु एगचरा वि एगदा रातो। / अवाहिते' कसाइत्था पेहमाणे समाहि अपडिण्णे3 1174 / / : . - 288. अयमंतरसि को एस्थ अहमंसि त्ति भिक्ख आहट्ट : अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए सकसाइए झाति 75 / / : 285. भगवान ने इहलौकिक (मनुष्य-तिर्यञ्च सम्बन्धी) और. पारलौकिक (देव सम्बन्धी) नाना प्रकार के भयंकर उपसर्ग सहन किये। वे अनेक प्रकार के सुगन्ध . और दुर्गन्ध में तथा प्रिय और अप्रिय शब्दों में हर्ष-शोक रहित मध्यस्थ रहे 172 / / 286. उन्होंने सदा समिति-(सम्यक् प्रवृत्ति) युक्त होकर अनेक प्रकार के स्पर्शों को सहन किया 1 वे संयम में होने वाली अरति और असंयम में होने वाली रति को (ध्यान द्वारा) शांत कर देते थे। वे महामाहन महावीर बहुत ही कम बोलते थे। वे अपने संयमानुष्ठान में प्रवृत्त रहते थे।७३।। 287. (जब भगवान जन-शून्य स्थानों में एकाकी होते तब) कुछ लोग आकर पूछते-"तुम कौन हो? यहाँ क्यों खड़े हो ?" कभी अकेले घूमने वाले लोग रात में आकर पूछते-'इस सूने घर में तुम क्या कर रहे हो ?'तब भगवान कुछ नहीं बोलते, 1. इस पंक्ति का तात्पर्य चूणिकार ने लिखा है.--- ‘एवं गुत्तागुत्ते सु 'संयहि तत्थ पुच्छिम् एगचार * वि एगदा राओ, एगा चरंति एगचरा, उन्भामियामो उब्भामगं पुच्छति अहवा दोवि जणाई आगम्म पुच्छंति ....मोणेणअच्छति ।'—इस प्रकार वासस्थानों (शयनस्थान) से गुप्त या अगुप्त होने पर भी रात को वहाँ कभी अकेले घूमने वाले या अवारागर्द या अवारागर्द से पूछते, या दोनों व्यक्ति भगवान के पास आकर पूछते थे....भगवान मौन रहते।। 2. 'अवाहित कसाइत्थ', का भावार्थ चूर्णिकार यों करते हैं- "पुच्छिज्जंतों विवायं ण देइ त्ति काऊणं रुस्संति पिट्टति" - अर्थात्-पूछे जाने पर भी जब कोई उत्तर वे नहीं देते, इस कारण वे रोष में आ जाते थे और पीटते थे। 3. 'समाहि अपडिण्णे' का तात्पर्य चर्णिकार के शब्दों में - "विसबसमास निरंही गंदा सुहसमाहिं च पेहमाणो विसयसंगदोसे य पेहमाणो इह परस्थ य अपडिण्णो'' -अर्थात्-रिषर सुखों की आशा के निरोधक भगवान मोक्षसुख समाधि की प्रेक्षा करते हुए विषयासक्ति के दोषों को देखकर इहलोक परलोक के विषय में अप्रतिज्ञ थे। 4. 'ए कसाइए', 'ए स कसातिते', 'ए सक्कसाइए' ये तीन पाठा-तर हैं। चूर्णिकार ने अर्थ किया है-- "गि हत्थे समत्त कसाइते संकसाइते, ते संकसाइते णातु झातिमेव / " गहस्थ का पूरी तरह से क्रोधादि कषायाविष्ट हो जाना संकयायित कहलाता है / भगवान गृहस्थ (पूछने वाले) को संकपायित जानकर ध्यानमग्न हो जाते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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