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________________ मष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 224 281 - इंगित-मरणग्रहण की विधि-सले वना से ग्राहार और कषाय को कृश करता हुआ साधक शरीर में जब थोड़ी-सो शक्ति रहे तभी निकटवर्ती ग्राम आदि से सूखा घास लेकर ग्राम प्रादि से बाहर किमी एकान्त निरवद्य, जीव-जन्तु रहिन शुद्ध स्थान में पहुँचे / स्थान को पहले भलीभाँति देखे, उसका भलीभांति प्रमार्जन करे, फिर वहाँ उस घास को बिछा ले लघुनीति-बड़ीनीति के लिए स्थंडिलभूमि की भी देखभाल कर ले / फिर उस घास के संस्तारक (बिछौने) पर पूर्वाभिमुख होकर बैठे, दोनों करतलों से ललाट को स्पर्श करके वह सिद्धों को नमस्कार करे, फिर पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करके 'नमोत्थण' का पाठ दो बार पढ़े और तभी इत्त्वरिक-इंगितमरण रूप अनशन का संकल्प करे। अर्था------धृति--सहनन आदि बलों से युक्त तथा करवट बदलना आदि क्रियाएं स्वयं करने में समर्थ साधक जीवनपर्यन्त. के लिए नियमतः चतुर्विध प्राहार का प्रत्याख्यान (त्याग) गुरु या दीक्षाज्येष्ठ साधु के सान्निध्य में करे, साथ ही 'इंगित'-मन में निर्धारित क्षेत्र में संचरण करने का नियम भी कर ले। तत्पश्चात् शांति, समता और समाधिपूर्वक इसकी आराधना में तल्लीन रहे / ' __इंगित-मरण का माहात्म्य-शास्त्रकार ने इसे सत्य कहा है तथा इसे स्वीकार करने वाला. सत्यवादी (अपनी प्रतिज्ञा के प्रति अन्त तक सच्चा व वफादार), राग-द्वेषरहित; दृढ़ निश्चयी, सांसारिक प्रपंचों से रहिन, परीषह-उपमर्गों से अनाकुल, इस अनशन पर दृढ विश्वास होने से भयंकर उपसर्गों के प्रा पड़ने पर भी अनुद्विग्न. कृतकृत्य एवं संसारसागर से पारगामी होता है और एक दिन इस समाधिमरण के द्वारा अपने जीवन को सार्थक करके चरमलक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। सचमुच समभाव और धैर्यपूर्वक इंगितम ण की साधना से अपना शरीर तो विमोक्ष होता ही है, साथ ही अनेक मुमुक्षुओं एवं विमोक्ष-साधकों के लिए वह प्रेरणादायक बन जाता है। ___ 'अणातीते' के अर्थ में टीकाकार व चर्णिकार के अर्थ कुछ भिन्न हैं / चूणि में दो अर्थ इस प्रकार किये हैं (1) जो जीवादि पदाथों, ज्ञानादि पंच प्राचारों का ग्रहण कर लिया है, वह उनसे प्रतीत नहीं है, तथा (2) जिसने महाव्रत भारवहन का प्रतीत-अतिक्रमण नहीं किया है, वह अनातीत है अर्थात् महावत का भार जैसा लिया था, वैसा ही निभाने वाला है। समाधिमरण का साधक ऐसा ही होता है। '. उवासह परिमसइकाइगमाईऽवि अप्पणा कुणाइ / सम्वमिह अप्परिचरण अनजोगेण घितिलिओ॥२॥ —ाचा० शीला० टीका पक 286 अर्थ-नियमपूर्वक गुरु के समीप चारों आहार का त्याग करता है और मर्यादित स्थान में नियमित चेष्टा करता है / करबट बदलना, उठना या कादिक गमन (लघुनीति-बड़ीीति) आदि भी स्वधं करता है / धैर्य, बल युक्त मुनि सब कार्य अपने आप करे, दूसरों की सहायता न लेवे। . 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 285-286 / 2. प्राचा० शीला 'टीका पत्रांक 286 / / 3. 'अणातीते' का अर्थ चर्णिकार ने किया है- 'आतीतं णाम गहित, अस्था जीवादि नाणादी वा पंच, म अतीतो जहारोवियभारवाही' 1--प्राचा रंग चूणि मूल पाठ टिप्पणी पृष्ठ 81 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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