________________ 180 आचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्या ... सलेखना विधि-यद्यपि. सलेखना की उत्कृष्ट अवधि 12 वर्ष की होती है। परन्तु यहाँ वह विवक्षित नहीं है। क्योंकि ग्लान की शारीरिक स्थिति उतने समय तक टिके रहने की नहीं होती। इसलिए संलेखना-साधक को अपनी शारीरिक स्थिति को देखते हुए तदनुरूप योग्यतानुसार समय निर्धारित करके क्रमश: बेला, तेला, चौला, पंचौला, उपवास, पायंबिल आदि क्रम से द्रव्य-संलेखना हेतु आहार में क्रमशः कमी (संक्षेप) करते जाना चाहिए। साथ ही भावसंलेखना के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों को अत्यन्त शांत एवं अल्प करना चाहिए। इसके साथ ही शरीर, मन, वचन की प्रवृत्तियों को स्थिर एवं आत्मा में एकाग्र करना माहिए। इसमें साधक को काष्ठफलक की तरह शरीर और कषाय- दोनों ओर से कृश बन जाना चाहिए। 'उहाय भिक्खू...'.--इसका तात्पर्य यह है-समाधिमरण के लिए उत्थित होकर। शास्त्रीय भाषा में उत्थान तीन प्रकार का प्रतीत होता है--- (1) मुनि दीक्षा के लिए उद्यत होनासंयम में उत्थान, (2) ग्रामानुग्राम उग्र व अप्रतिबद्ध विहार करना-अभ्युद्यतविहार का उत्थान तथा (3) ग्लान होने पर संलेखना करके समाधिमरण के लिए उद्यत होना-समाधिमरण का उत्थान / यहाँ तृतीय उत्थान विवक्षित है। इंगितमरण का स्वरूप और अधिकारी-पादपोपगमन की अपेक्षा से इंगितमरण में संचार (चलन) की छूट है। इसे 'इंगितमरण' इसलिए कहा जाता है कि इसमें संचार का क्षेत्र (प्रदेश) इंगित-नियत कर लिया जाता है, इस मरण का आराधक उतने ही प्रदेश में संचरण कर सकता है। इसे इत्वारिक अनशम भी कहते हैं। यहाँ 'इत्वर' शब्द थोड़े काल के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है और न ही इत्वर 'सागार-प्रत्याख्यान'२ के अर्थ में यहाँ अभीष्ट है, अपितु थोड़े-से निश्चित प्रवेश में यावज्जीवन संचरण करने के अर्थ में है। जिनकल्पिक आदि के लिए जब अन्य काल में भी सागार-प्रत्याख्यान करना असम्भव है; तब फिर यावत्कथिक भक्त-प्रत्याख्यान का अवसर को हो सकता है ? रोगातुर श्रावक इत्वर-अनशन करता है, वह इस प्रकार से कि 'अगर में इस रोग से पांच-छह दिनों में मुक्त हो जाऊँ तो आहार कर लूगा, अन्यथा नहीं। चूर्णिकार ने परिक' का अर्थ अल्पकालिक किया है, वह विचारणीय है। 1. प्रायारो (मुनि नथमलजी कृत विवेचन) पृ० 315 / 2. 'सागार-प्रत्याख्यान'-पागार या विशेष काल तक के लिए त्याग तो श्रावक करता है। सामान्य साधु भी कर सकता है, पर जिनकल्पी श्रमण सांगारप्रत्याख्यान नहीं करता। 3. (क) प्राचा• शीला टीका पत्रांक 285-206 / (ख) देखिए इंगितमरणा का स्वरूप दो गाथाओं में-- पञ्चक्खाइ माहारं चउवि णियमओ गुरुसमीवे / इंगियदेसम्मि तहा चिट्ठपि हु पियमओ कुणइ // 1.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org