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________________ 282 आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कम्य 'छिन्तकहकहे'-इस शब्द के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं (1) किसी भी प्रकार से होने वाली राग-द्वेषात्मक कथाएँ (बातें) जिसने सर्वथा बन्द कर दी हैं, अथवा (2) 'मैं कैसे इस इंगितमरण की प्रतिज्ञा को निभा पाऊँगा।' इस प्रकार की शंकाग्रस्त कथा ही जिसने समाप्त कर दी है। एक अर्थ यह भी सम्भव है-इंगितमरण साधक को देखकर लोगों की ओर से तरहतरह की शंकाएँ उठायी जाएँ, ताने कसे जाएँ या कहकहे गूजें, उपहास किया जाय, तो भी वह विचलित या व्याकुल नहीं होता। ऐसा साधक छिन्नकथकथ' होता है।' 'आतोस' इस शब्द के विभिन्न नयों से वृत्तिकार ने चार अर्थ बताए हैं-- (1) जिसने जीवादि पदार्थ सब प्रकार से ज्ञात कर लिए हैं, वह आतीतार्थ / (2) जिसने पदार्थों को आदत्त-गृहीत कर लिया है, वह प्रादत्तार्थ / (3) जो अनादि-अनन्त संसार में गमन से प्रतीत हो चुका है। (4) संसार को जिसने प्रादत्त-ग्रहण नहीं किया- अर्थात् जो अब निश्चय ही संसारसागर का पारगामी हो चुका है। चूर्णिकार ने प्रथम अर्थ को स्वीकार किया है। मेरवमचिणे या भेरवमविणे-दोनों ही पाठ मिलते हैं। 'मेरवमचिगे' पाठ मानने पर भैरव शब्द इंगितमरण का विशेषण बन जाता है, अर्थ हो जाता है---जो घोर अनुष्ठान है, कायरों द्वारा जिसका अध्यवसाय भी दुष्कर है, ऐसे भैरव इंगितमरण को अनुचीर्ण-पाचरित कर दिखाने वाला। चर्णिकार ने दूसरा पाठ मानकर अर्थ किया है--जो भयोत्पादक परीषहों और उपसर्गों से तथा डांस, मच्छर, सिंह, व्याघ्र आदि से एवं राक्षस, पिशाच आदि से उद्विग्न नहीं होता, वह भैरवों से अनुद्विग्न है / // षष्ठ उद्देशक समाप्त // सत्तमो उद्देसओ सप्तम उद्देशक अचेल-कल्प 225- जे भिक्खू अचेले परिसिते तस्स णं एवं भवति--चाएमि अहं तम-फासं अहिया 1. आचा० शीला. टोका पत्रांक 286 / 2. पाचा० शीला टीका पत्रांक 286 / 3. 'भेरवमणुचिमणे' के स्थान पर चूणि में 'भैरवमणुविष्णे' पाठ मिलता है जिसका अर्थ इस प्रकार किया गया है-भय करोतीति भेरवं भेरवेहि परीसहोवसग्गेहि अविज्जमाणो अणुविष्णो, इसमसग-सोह-वग्यातिएहि य रक्स-पिसायादिहि य / -प्राचारोग चूगि मूलपाठ टिपण पृष्ठ 81 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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