________________ अष्टम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 225-226 283 सेत्तए, सीतफासं अहियासेत्तए, तेउफासं अहियासेत्तए,' दंस-मसगफासं अहियासेत्तए, एगतरे अण्णसरे विरूवल्वे फासे अहियासेत्तए, हिरिपडिच्छादणं च हं णो संचाएमि अहियासेत्तए / एवं से कम्पति कडिबंधणं धारित्तए। 226. अबुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सोतफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दस-मसगफासा फुसंति, एगतरे अण्णतरे विरूवलवे फासे अहियासेति अचेले लापवियं आगममाणे / तवे से अभिसमण्णागते भवति / जहेतं भगवया पवेवितं तमेव अभिसमेच्च सव्वतो सध्ययाए सम्मत्तमेव समभिजाणिया / 225. जो (अभिग्रहधारी) भिक्ष अचेल-कल्प में स्थित है, उस भिक्षु का ऐसा अभिप्राय हो कि मैं घास के तीखे स्पर्श को सहन कर सकता हूँ, सर्दी का स्पर्श सह सकता हूँ, गर्मी का स्पर्श सहन कर सकता है, डांस और मच्छरों के काटने को सह सकता हूँ, एक जाति के या भिन्न-भिन्न जाति के, नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शों को सहन करने में समर्थ हूँ, किन्तु मैं लज्जा निवारणार्थ (गुप्तांगों के-) प्रतिच्छादन-वस्त्र को छोड़ने में समर्थ नहीं हूँ। ऐसी स्थिति में वह भिक्षु कटिबन्धन (कमर पर बांधने का वस्त्र धारण कर सकता है। 226. अथवा उस (अचेलकल्प) में ही पराक्रम करते हुए लज्जाजयी अचेल भिक्षु को बार-बार घास का तीखा स्पर्श चुभता है, शीत का स्पर्श होता है, गर्मी का स्पर्श होता है, डांस और मच्छर काटते हैं, फिर भी वह अचेल (अवस्था में रहकर) उन एकजातीय या भिन्न-भिन्न जातीय नाना प्रकार के स्पर्शों को सहन करे। लाधव का सर्वांगीण चिन्तन करता हुअा (वह अचेल रहे)। अचेल मुनि को (उपकरण-अवमौदर्य एवं काय-क्लेश) तप का सहज लाभ मिल जाता है / अतः जैसे भगवान ने अचेलत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जान कर, सब प्रकार से, सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व (सत्य) या समत्व को भलीभाँति जानकर आचरण में लाए / विवेचन-उपधि-विमोक्ष का चतुर्पकल्प-इन दो सूत्रों में (225-226) में प्रतिपादित है। इसका नाम अचेलकल्प है। इस कल्प में साधक वस्त्र का सर्वथा त्याग कर देता है। इस कल्प को स्वीकार करने वाले साधक का अन्तःकरण धृति, संहनन, मनोबल, वैराग्य भावना आदि के रंग में इतना रंगा होता है और प्रागमों में वर्णित नारकों एवं तिर्यञ्चों को प्राप्त होने वाली असह्य वेदना की ज्ञानबल से अनुभूति हो जाने से घास, सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर आदि तीव्र स्पर्शों या अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्शों को सहने में जरा-सा भी कष्ट नहीं वेदता / किन्तु कदाचित् ऐसे उच्च साधक में एक विकल्प हो सकता है, जिसकी अोर शास्त्रकार ने इंगित 1. 'अहियासेत्तए' के बदले चूणि में पाठ है--'ण सो अहं अवाउदो' अर्थात् ~~मैं अपावृत (नंगा) होने में समर्थ नहीं है। मैं लज्जित हो जाता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org