________________ 24 आचारांग सूत्र-प्रथम भुतस्कन्ध किया है। वह है---लज्जा जीतने की असमर्थता। इसलिए शास्त्रकार ने उसके लिए कटिबन्धन (चोलपट) धारण करने की छूट दी है। किन्तु साथ ही ऐसी कठोर शर्त भी रखी है कि अचेल अवस्था में रहते हुए-शीतादि को या अनुकूल किसी भी स्पर्श से होने वाली पीड़ा को उसे समभावपूर्वक सहन करना है। उपधि-विमोक्ष का यह सबसे बड़ा कल्प है। शरीर के प्रति आसक्ति को दूर करने में यह बहुत ही सहायक है / ' अभिग्रह एवं वैयावृत्य-प्रकल्प 227. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु अणेसि भिक्खूणं असणं वा 4 आहट्ट दलयिस्सामि आहडं च सातिज्जिस्सामि [1], जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-अहं च खलु अण्णेसि भिक्खूणं असणं वा 4 आहटु दलयिस्सामि आहडं च णो सातिज्जिस्सामि [2] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति-अहं च खलु मसणं वा 4 आहटु णो दलयिस्सामि आहडं च सातिज्जिस्सामि [3], जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च अण्णेसि खलु भिक्खूणं असणं वा 4 आहटु णो दलयिस्सामि आहडं च णो सातिज्जिस्सामि [4], [जस्स" णं भिक्खुस्स एवं भवति- अहं च खलु तेण अहातिरित्तण अहेसणिज्जेण अहापरिग्गहिएण अस१.(क) आचा० शीला 0 टीका पत्र 287 / (ख) भगवद्गीता में भी बताया है 'ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते' --शीतोष्ण आदि संस्पर्श से होने वाले भोग दुःख की उत्पत्ति के कारण ही हैं। . 2. . इसके बदले चूर्णिमान्य पाठ और उसका अर्थ इस प्रकार है --- "आहटटु परिण्णं दाहामि (ण) पुण गिलायमाणो विसरि (स) कप्पियस्सावि गिहिस्सामो(मि) असणादि बितियो ।.....अर्थात्- प्रतिज्ञानुसार आहार लाकर दूंगा, किन्तु ग्लान होने पर भी असमानकल्प वाले मुनि के द्वारा लाया हुआ अशनादि पाहार ग्रहण नहीं करूंगा 'यह द्वितीय कल्प है। 3. 'वा'शब्द से यहाँ का सारा पाठ 199 सूत्रानुसार समझना चाहिए। 4. 'वलयिस्समि' के बदले किसी-किसी प्रति में 'दासामि' पाठ है, अर्थ एक-सा है। 5. यहाँ भी 'वा' शब्द से सारा पाठ 199 सूत्रानुसार समझना चाहिए / 6. यहाँ चूर्णि में इतना पाठ अधिक है-'चउत्थे उभयपडिसेहो' चौथे संकल्प में दूसरे भिक्षुओं से अश नादि देने-लेने दोनों का प्रतिषेध है। 7. (क) कोष्टकान्तर्गत पाठ शीलांक वृत्ति में नहीं हैं। (ख) चूणि के अनुसार यहाँ अधिक पाठ मालूम होता है -"वत्तारि पडिमा अनिमाविसेसा वुत्ता, इदाणि पंचमो, सो पुण तेसिं चेव तिण्हं आदिल्लाणं पडिमाविसेसाणं विसेमो।"-चार प्रतिमाएँ अभिग्रहविशेष कहे गए हैं, अब पांचवां अभिग्रह (बता -हे हैं) वह भी उन्हीं प्रारम्भ को तीन प्रतिमाविशेषों से विशिष्ट है। 8. यहाँ चूणि में पाठान्तर इस प्रकार है-अहं च खलु अन्नेति साहम्मियाण अहेसणिज्जेण अहापरिग्ग हितेण अहातिरित्तण असणेण वा 4 अगिलाए अभिकख वेयावडियं करिस्सामि, अहं वा वि खल तेक अहातिरित्तण अभिकख साहम्मिएण अगिलायंतरण वेयावडियं कोरमाणं सातिग्जिस्सामि ।"-मैं भी अग्लान हूँ अतः अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय, जैसा भी गृहस्थ के यहाँ से लाया गया है तथा पावश्यकता से अधिक प्रशनादि पाहार से जिरा के उद्देश्य से अन्य सामिकों की सेवा करूंगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org