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________________ अष्टम अध्ययन : सप्तम उद्देशक :सूत्र 227 282 ण वा 4 अभिकख साहम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाय अहं वा वि तेण अहातिरित्तण . अहेसणिज्जेण अहापरिग्गहिएण असणेण वा 4 अभिकख साहम्मिएहि कीरमाणं वेयावडियं सासिज्जिस्सामि [5] लावियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया। . 227. जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा (संकल्प) होती है कि मैं दूसरे भिक्षों को अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य साकर दूंगा और उनके द्वारा लाये हुए (आहार) का सेवन करूंगा। (1) / ___ अथवा जिस भिक्ष को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर दूंगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए (पाहारादि) का सेवन नहीं करूंगा / (2) __अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को प्रशन, पान, खाद्य या स्वाश लाकर नहीं दूंगा, लेकिन उनके द्वारा लाए हुए (आहारादि) का सेवन करूंगा। (3) __अथवा जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर नहीं दूंगा और न ही उनके द्वारा लाए हुए (आहारादि) का सेवन करूगा / (4) (अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि) मैं अपनी आवश्यकता से अधिक, अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणोय एवं ग्रहणीय तथा अपने लिए यथोपलब्ध लाए हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य में से निर्जरा के उद्देश्य से, परस्पर उपकार करने को दष्टि से सामिक मुनियों की सेवा करूंगा, (अथवा) मैं भी उन सार्धामक मुनियों द्वारा अपनी आवश्यकता से अधिक, अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय-ग्रहणीय तथा स्वयं के लिए यथोपलब्ध लाए हुए अशन, पान, खाद्य या स्वाध में से निर्जरा के उद्देश्य से उनके द्वारा की जाने वाली सेवा को रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा / (5) वह लाघव का सर्वांगीण विचार करता हुआ (सेवा का संकल्प करे)। (इस प्रकार सेवा का संकल्प करने वाले) उस भिक्षु को (वैयावृत्य और कायक्लेश) तप का लाभ अनायास ही प्राप्त हो जाता है। भगवान् ने जिस प्रकार से इस (सेवा के कल्प) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जान-समझ कर सब प्रकार से सर्वात्मना ( उसमें निहित) सम्यक्त्व या समत्व को भलीभांति जान कर माचरण में लाए। तथा मैं सो अन्तान उधों द्वारा प्रावस्यकता से अधिक लाए पाहार से निर्जरा के उद्देश्य से की . जाने वाली सेवा ग्रहण करूंगा। , .. .. .. 1. यहाँ 'वा' शब्द से सारा पाठ 199 सूत्रानुसार समझना चाहिए। 2. 'करणाय' के बदले 'करणाएं तथा किरणायते' पाठ मिलता है। अर्थ होता है--उपकार करने के लिए। 3. यहाँ 'जाव' शब्द से समग्र पाठ 187 सूत्र नूसार समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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