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________________ 156 माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य विवेचन परस्पर वयावृत्य कर्म-विमोक्ष में सहायक-प्रस्तुत सूत्र में आहार के परस्पर लेन-देन के सम्बन्ध में जो चार भंगों का उल्लेख है, वह पंचम उद्देशक में भी है। अन्तर इतना ही है कि वहाँ अग्लान साधु ग्लान की सेवा करने का और ग्लान साधु अग्लान साधुओं से सेवा सेने का संकल्प करता है, उसी संदर्भ में आहार के लेन-देन की चतुभंगी बताई गई है। परन्तु यहाँ निर्जरा के उद्देश्य से तथा परस्पर उपकार की दृष्टि से पाहारादि सेवा के प्रादानप्रदान का विशेष उल्लेख पांचवें भंग में किया। वैयावृत्य करना, कराना और वैयावृत्य करने वाले साधु की प्रशंसा करना, ये तीनों संकल्प कर्म-निर्जरा, इच्छा-निरोध एवं परस्पर उपकार की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इस तरह मन, वचन, काया से सेवा करने, कराने एवं अनुमोदन करने वाले साधक के मन में अपूर्व प्रानन्द एवं स्फूर्ति की अनुभूति होती है तथा उत्साह की लहर दौड़ जाती है / उससे कर्मों की निर्जरा होती है, केवल शारीरिक सेवा ही नहीं, समाधिमरण या संलेखना की साधना के समय स्वाध्याय, जप, वैचारिक पाथेय, उत्साह-संवर्द्धन आदि के द्वारा परस्पर सहयोग एवं उपकार की भावना भी कर्म-विमोक्ष में बहुत सहायक है / सेवा भावना से साधक की साधना तेजस्वी और अन्तर्मुखो बनती है।' परस्पर वैपादृत्य के सह प्रकल्प -- इस (227) सूत्र में साधक के द्वारा अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार की जाने वाली 6 प्रतिज्ञाओं का उल्लेख है (1) स्वयं दूसरे साधुओं को आहार लाकर दूंगा, उनके द्वारा लाया हुआ लूंगा। (2) दूसरों को लाकर दूंगा, उनके द्वारा लाया हुआ नहीं लूंगा। (3) स्वयं दूसरों को लाकर न दूंगा, उनके द्वारा लाया हुआ लूगा / (4) न स्वयं दूसरों को लाकर दूंगा, न ही उनके द्वारा लाया हुआ लूगा / (5) आवश्यकता से अधिक कल्पानुसार यथाप्राप्त आहार में से निरा एवं परस्पर उपकार की दृष्टि से सार्मिकों की सेवा करूंगा। (6) उन सामिकों से भी इसी दृष्टि से सेवा लगा। इन्हें चूर्णिकार ने प्रतिमा तथा अभिग्रह विशेष बताया है। सलेखना-पादपोपगमन अनशन 228. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति 'से गिलामि च खलु अहं इमम्मि समए इमं सरोरगं अणपुटवेणं परिवहितए से अणुपुष्वेणं माहारं संवटेज्जा, अणपुग्वेणं आहार संवटेता कसाए पतगुए किरुचा समाहिमच्चे फलगावयट्ठी न्हाय भिक्खू अभिगिराध्चे 1. प्राचारांग (पू० प्रा० श्री आरमाराम जी म० कृत टीका) पृ०६१०॥ 2. प्रामा० शीला टीका पीक 288 / 3. इसके बदले किसी प्रति में 'समाहरन्चे' पाठ मिलता है। अर्थ होता है-जिसमे अर्चा-संताप को समेट किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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