________________ षष्ठ अध्ययन : पंचम उरक : सूत्र 196-198 233 विवेचन-इस उद्देशक में परिषहों और उपसर्गों को समभाव से सहने और विवेक तथा समभाव पूर्वक सबको उनको भूमिका के अनुरूप धर्मोपदेश देने की प्रेरणा दी गयी है। ___ 'लुसगा भवंति'—'लूषक' शब्द हिंसक, उत्पीड़क, विनाशक, क्रूर हत्यारा, हैरान करने वाला, दूषित करने वाला,' प्राज्ञा न मानने वाला, विराधक आदि अर्थों में प्राचारांग और सूत्रकृतांग में यत्र-तत्र प्रयुक्त हुआ है। यहाँ प्रसंगवश लूषक के क्रूर, निर्दय, उत्पीड़क, हिंसक या हैरान करने वाला-ये अर्थ हो सकते हैं। पादविहारी साधुओं को भी ऐसे लषक जंगलों, छोटे से गांवों, जनशून्य स्थानों या कभी-कभी घरों में भी मिल जाते हैं। शास्त्रकार ने स्वयं ऐसे कई स्थानों का नाम निर्देश किया है। निष्कर्ष यह है कि किसी भी स्थान में साधु को ऐसे उपद्रवी तत्व मिल सकते हैं और वे साधु को तरह-तरह से हैरान-परेशान कर सकते हैं। वे उपद्रवी या हिंसक तत्त्व मनुष्य ही हों, ऐसी बात नहीं है, देवता भी हो सकते हैं, तिथंच भी हो सकते हैं। साधु प्रायः विचरणशील होता है, वह अकारण एक जगह स्थिर होकर नहीं रहता। इस दृष्टि से वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण किया है कि साधु उच्च-नीच-मध्यम कुलों (गृहों) में भिक्षा आदि के लिए जा रहा हो, या विभिन्न ग्रामों आदि में हो, या बीच में मार्ग में विहार कर रहा हो, अथवा कहीं गुफा या जनशून्य स्थान में कायोत्सर्ग या अन्य किसी स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि साधना में संलग्न हो, उस समय संयोगवश कोई मनुष्य, तिर्यच या देव द्वेष-वर-वश या कुतू. हल, परीक्षा, भय, स्वरक्षण प्रादि की दृष्टि से उपद्रवी हो जाता है / निर्मल, सरल, निष्कलंक, निर्दोष मुनि पर अकारण ही कोई उपसर्ग करने लगता है या फिर अनुकल या प्रतिकल परीषहों का स्पर्श हो जाता है। उस समय धूतवादी (कर्मक्षयार्थी) मुनि को शान्ति, समाधि और संयमनिष्ठा भंग न करते हुए समभावपूर्वक उन्हें सहना चाहिए, क्योंकि शान्ति प्रादि दशविध मुनिधर्म में सुस्थिर रहने वाला मुनि ही दूसरों को धर्मोपदेश द्वारा सन्मार्ग बता सकता है। 'ओए समितबसणे-ये दोनों विशेषण मुनि के हैं / इनका अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है-मोज का मर्थ है-एकल; राग-द्वेष रहित होने से अकेला / समित-दर्शन पद के तीन अर्ष किए गये हैं-(१) जिसका दर्शन समित–सम्यक् हो गया हो, वह सम्यग्दृष्टि, (2) जिसका दर्शन (दृष्टि, ज्ञान या अध्यवसाय) शमित-उपशान्त हो गया हो, वह शमितदर्शन और (3) जिसकी दृष्टि समता को प्राप्त कर चुकी है, वह समित-दर्शन-समदृष्टि / इन दोनों विशेषणों से युक्त मुनि ही उपसर्ग/परीषह को समभावपूर्वक सह सकता है। 'ओए' का संस्कृत रूपान्तर 'प्रोतः' करने पर ऐसा अर्थ भी सम्भव है—अपने आत्मा में मोत-प्रोत, जिसे शरीर आदि पर-भाव से कोई वास्ता न हो। ऐसा साधक ही उपसर्गों और परीषहों को सह सकता है। 1. पाइमसहमहण्णवो पृ० 728 / 2. आचा• शीला• टीका पत्रांक 231 के आधार पर / 3. भाचा. शीला टीका पत्रांक 232 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org