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________________ 212 नाबागि सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम्स चिन्तन करके (या उनर्की वृत्ति-प्रवृत्ति के अनुरूप विचार करके) धर्म का व्याख्यान करे। 197. भिक्षु विवेकपूर्वक धर्म का व्याख्यान करता हुआ अपने आपकों बाधा (पाशातना) न पहुँचाए, न दूसरे को बाधा पहुँचाए और न ही अन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को बाधा पहुँचाए। किसी भी प्राणी को बाधा न पहुँचाने वाला तथा जिससे प्राण, भूत, जीव और सत्व का वध हो, (ऐसा धर्म-व्याख्यान न देने वाला) तथा आहारादि की प्राप्ति के निमित्त भी (धर्मोपदेशन करने वाला) वह महामुनि संसार-प्रवाह में डूबते हुए प्राणों, भूतों, जीवों और सत्कों के लिए प्रसंदीन द्वीप की तरह शरण होता है। इस प्रकार वह (संयम में) उत्थित, स्थितात्मा (प्रात्मभाव में स्थित), अस्नेह, अनासक्त, अविचल (परिषहों और उपसों आदि से अप्रकम्पित), चल (विहारचर्या करने वाला), अध्यवसाय (लेश्या) को संयम से बाहर न ले जाने वाला मुनि (अप्रतिबद्ध) होकर परिव्रजन (विहार) करे। वह सम्यग्दृष्टिमान् मुनि पवित्र उत्तम धर्म को सम्यकप में जानकर (कषायों और विषयों) को सर्वथा उपशान्त करे। 198. इसके (विषय-कषायों को शान्त करने के लिए तुम प्रासक्ति (प्रासक्ति के विपाक) को देखो। अन्थों (परिग्रह) में गृद्ध और उनमें निमम्न बने हुए मनुष्य कामों से प्राक्रान्त होते हैं। - इसलिए मुनि नि:संग रूप संयम (संयम के कष्टों) से उद्विग्न-खेदखिन्न न हो। जिन संगरूप प्रारम्भों से (विषय-निमग्न) हिंसक वृत्ति वाले मनुष्य उद्विग्न महीं होते, ज्ञानी मुनि उन सब प्रारम्भों को सब प्रकार से, सर्वात्मना त्याम देते हैं। वे ही मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का मन करने वाले होते हैं। ऐसा मुनि त्रोटक (संसार-शृखला को तोड़ने वाला) कहलाता है। -~-ऐसा मैं कहता हूँ। शरीर के व्यापात को (मृत्यु के समय की पीड़ा को) ही संग्रामशीर्ष (युद्ध का अग्रिम मोर्चा) कहा गया है। (जो मुनि उसमें हार नहीं खाता), वही (संसार का) पारगामी होता है। (परिषहों और उपसर्गों से अथवा किसी के द्वारा घातक प्रहार से) आहत होने पर भी मुनि उद्विग्न नहीं होता, बल्कि लकड़ी के पाटिये-फलक की भांति (स्थिर या कृश) रहता है। मृत्युकाल निकट पाने पर (विधिवत् संलेखना से शरीर और कषाय को कृश बनाकर समाधिमरण स्वीकार करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए) जब तक शरीर का (प्रारमा से) भेद (वियोग) न हो, तब तक वह मरणकाल (आयुष्य क्षय) की प्रतीक्षा करे। --ऐसा मैं कहता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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