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________________ पाठ अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 196-198 231 से अणासादए अणासादमाणे वन्ममाणाणे पाणाणे भूताणे जीवाणं सत्तापं जहा से दोवे असंवीणे एवं से भवति सरणं महामुणी। एवं से उदिछते ठितप्पा अणिहे अचले चले अबहिलस्से परिम्वए। संसाय पेसलं धम्मं दिमिं परिणिन्वुडे / 198. तम्हा संगं ति पासहा / गंथेहि गढिता जरा विसण्णा कामक्र्कता। तम्हा लूहातो गो परिवित्तसेज्जा। जस्सिमे आरंभा सब्वतो सम्वत्ताए सुपरिष्णाता भवति जस्सिमे लसिणो णो परिवित्तसंति, से वंता कोषं च मापं च मायं च लोभं च / एस. तिट्टे वियाहिते ति नेमि / कायस्स वियावाए एस संगामसीसे वियाहिए। से हु पारंगमे मुणो। मवि हम्ममाणे फलगावतद्वी कालोवणोते कंखेज्ज कालं जाव सरीरभेदो त्ति बेमि / पंचम उद्देशक समाप्त // 196. वह (धुत/श्रमण) घरों में, गृहान्तरों में (घरों के आस-पास), ग्रामों में, ग्रामान्तरों (ग्रामों के बीच) में नगरों में, नगरान्तरों (नगरों के अन्तराल) में, जनपदों में या जनपदान्तरों (जनपदों के बीच) में (आहारादि के लिए विचरण करते हुए अथवा कायोत्सर्ग में स्थित मुनि को देखकर) कुछ विद्वेषी जन हिंसक-(उपद्रवी) हो जाते हैं, (वे अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग देते हैं)। अथवा (सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर आदि परिषहों के) स्पर्श (कष्ट) प्राप्त होते हैं। उनसे स्पृष्ट होने पर धीर मुनि उन सबको (समभाव से) सहन करे। राग और द्वेष से रहित (निष्पक्ष) सम्यग्दर्शी (या समितदी) एवं आगमज्ञ मुनि लोक (= प्राणिजगत्) पर दया/अनुकम्पा भावपूर्वक पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण सभी दिशाओं और विदिशाओं में (स्थित) जीवलोक को धर्म का प्राख्यान (उपदेश) करे / उसका विभेद करके, धर्माचरण के सुफल का प्रतिपादन करे। . वह मुनि सज्ञान सुनने के इच्छुक व्यक्तियों के बीच, फिर वे चाहे (धर्माचरण के लिए) उत्थित (उद्यत) हों या अनुस्थित (अनुद्यत), शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच (निर्लोभता), आर्जव (सरलता), मार्दव (कोमलता), लाघव (अपरिग्रह) एवं अहिंसा का प्रतिपादन करे। वह भिक्षु समस्त प्राणियों, सभी भूतों सभी जीवों और समस्त सत्त्वों का हित. 1. 'वज्झमाणाण' के बदले चणि में खुज्झमाणाण पाणाण पाठ स्वीकृत हैं, जिसका अर्थ है जो प्राण, भूत, जीव और सत्त्व बोध पाए हुए हैं। अथवा बहिज्जमाणाणं वा संसारसमुद्दतेण' अर्थात् संसार समुद्र का अन्त (पार) करके बाहर होने वाले। 2. इसके बदले 'काम-अक्कंता' 'कामधिपिता' पाठ भी मिलते हैं। अर्थ क्रमश: यों हैं-काम से आक्रान्त __ या कामग्रस्त या कामगृहीत / 3. "वियावाए' के बदले पाठान्तर हैं-विवाघाए विवाधामो विप्रो गाए वियोवाते विउवाते आदि हैं। क्रमशः मर्थ यों है--विशेष रूप से व्याघात, न्याघात, (विनाश), न्यापात (विशेष रूप से पात)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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