________________ 234 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध धर्मव्याख्यान क्यों, किसको और कैसे ? -सूत्र 196 के उत्तरार्ध में तीनों शंकाओं का समाधान किया गया है। वृत्तिकार ने उसे स्पष्ट करते हुए कहा है--प्रख्यतः-प्राणिलोक पर दया व अनुकम्पा बद्धिपूर्वक. क्षेत्रतः-पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर-इन चार दिशाओं और विदिशाओं के विभाग का भलीभाँति निरीक्षण करके धर्मोपदेश दे, कालतः-यावज्जीवन और भावतः-समभावी निष्पक्ष-राग-द्वेष रहित होकर / चूकि सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है, सुख प्रिय है। सभी सुख चाहते हैं- इस बात को आत्मौपम्य दृष्टि से सदा तौलकर जो स्वयं के लिए प्रतिकूल है, उसे दूसरों के लिए न करे, इस प्रात्मधर्म को समझकर कहे। किन्तु विभाग करके कहे। यानी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से भेद करके आक्षेपणी आदि कथाविशेषों से या प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथन, परिग्रह, रात्रिभोजन-विरति आदि के रूप में धर्म का-पृथककरण करे तथा यह भी भलीभाँति देखे कि यह पुरुष कौन है ? किस देवता विशेष को नमस्कार करता है ? अर्थात् किस धर्म का अनुयायी है, अाग्रही है या अनाग्रही है ? इस प्रकार का विचार करे / तदनन्तर वह आगमवेत्ता साधक व्रत, नियम, प्रत्याख्यान, धर्माचरण आदि का फल बताए-धर्मोपदेश करे। .. धर्म-श्रोता कैसा हो? इस सम्बन्ध में शास्त्र के पाठानुसार वृत्तिकार स्पष्टीकरण करते हैं वह आगमवेत्ता स्व-पर-सिद्धान्त का ज्ञाता मुनि यह देखे कि जो भाव से उत्थित पूर्ण संयम पालन के लिए उद्यत हैं, उन्हें अथवा सदैव उत्थित स्वशिष्यों को समझाने के तिए अथवा अनुत्थित-श्रावकों आदि को, धर्म-श्रवण के जिज्ञासुनों को अथवा गुरु आदि की पर्युपासना करने वाले उपासकों को संसार-सागर पार करने के लिए धर्म का व्याख्यान करे। धर्म के किस-किस रूप का व्याख्यान करे ? इसके लिए शास्त्रकार ने बताया है'संति अतिवत्तिय 'अणतिवत्तिय' शब्द के चर्णिकार ने दो अर्थ किए हैं—(९) जिस धर्मकथा से ज्ञान, दर्शन, चारित्र का प्रतिव्रजन-अतिक्रमण न हो, वैसी अनतिवाजिक धर्मकथा कहे, अथवा जिस कथा से प्रतिपात (हिंसा) न हो, वैसी अनतिपातिक धर्मकथा कहे / वृत्तिकार ने इसका दूसरा ही अर्थ किया है-'पागमों में जो वस्तु जिस रूप में कही है, उस 'यथार्थ वस्तुस्वरूप का अतिक्रमण/प्रतिपात न करके धर्मकथा कहे / ' धर्मकथा किसके लिए न करे ?-शास्त्रकार ने धर्माख्यान के साथ पाँच निषेष भी बताए हैं--(१) अपने आपको बाधा पहुँचती हो तो, (2) दूसरे को बाधा पहुँचती हो तो, (3) प्राण, भूत, जीव, सत्व को बाधा पहुँचती हो तो, (4) किसी जीव की हिंसा होती हो तो, (5) आहारादि की प्राप्ति के लिए। 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 232 2. "अणतिवत्तियं नाणादीणि जहा अतिवति तहा कहेति / अहवा अतिपतणं अपिपातो "ण अतिवातेति प्रणतिवातियं / " . . ~ पाचारांग चूणि पृष्ठ 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org