________________ षष्ठ अध्ययन : पंचम उददेशक : सूत्र 196-195 235 आत्माशातना-पराशातना-प्रात्मा की आशातना का वृत्तिकार ने अर्थ किया है-अपने सम्यग्दर्शन आदि के आचरण में बाधा पहुँचाना प्रामाशातना है। श्रोता की प्राशातनाअवज्ञा या बदनामी करना पराशातना है / ' धर्म व्याख्यानकर्ता की योग्यताएं-शास्त्रकार ने धर्माख्यानकर्ता की सात योग्यताएँ बतायी हैं--(१).निष्पक्षता, (2) सम्यग्दर्शन, (3) सर्वभूतदया, (4) पृथक्-पृथक् विश्लेषण करने की क्षमता, (5) आगमों का ज्ञान, (6) चितन करने की क्षमता और (7) आशातना-परित्याग / . . नागार्जुनीय वाचना में जो पाठ अधिक है:-जिसके अनुसार निम्नोक्त गुणों से युक्त मुनि धर्माख्यान करने में समर्थ होता है-(१) जो बहुश्रु त हो, (2) आगम-ज्ञान में प्रबुद्ध हो, (3) उदाहरण एवं हेतु-अनुमान में कुशल हो, (4) धर्मकथा की लब्धि से सम्पन्न हो, (5) क्षेत्र, काल और पुरुष के परिचय में प्राने पर यह-पुरुष कौन है ? किस दर्शन (मत) को मानता है, इस प्रकार की परीक्षा करने में कुशल हो। इन गुणों से सुसम्पन्न साधक ही धर्माख्यान कर सकता है। सूत्रकृतांगसूत्र में धर्माख्यानकर्ता की आध्यात्मिक क्षमताओं का प्रतिपादन किया गयां है, यथा-(१) मन, वचन, काया से जिसका प्रात्मा गुप्त हो, (2) सदा दान्त हो, (3) संसारस्रोत जिसने तोड़ दिए हों, (4) जो आस्रव-रहित हो, वहीं शुद्ध, परिपूर्ण और अद्वितीय धर्म का व्याख्यान करता है। ___'लूहातो' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है—संग या आसक्ति रहित-लूखा-रूक्ष अर्थात्-संयम / 'संगामतीसे शरीर का विनाश-काल (मरण)-वस्तुतः साधक के लिए संग्राम का अग्रिम मोर्चा है। मृत्यु का भय संसार में सबसे बड़ा भय है। इस भय पर विजय पाने वाला, सब प्रकार के भयों को जीत लेता है। इसलिए मृत्यु निकट आने पर या मारणान्तिक वेदना होने पर शांत, अविचल रहना--मृत्यु के मोर्चे को जीतना है। इस मोर्चे पर जो हार खा जाता है, वह प्रायः सारे संयमी जीवन की उपलब्धियों को खो देता है। उस समय शरीर के. प्रति सर्वथा निरपेक्ष और निर्भय होना जरूरी है, अन्यथा की-कराई सारी साधना चौपट हो जाती है। शरीर के प्रति मोह-ममत्व या आसक्ति से बचने के लिए पहले से ही कषाय और शरीर की संलेखना (कृशीकरण) करनी होती है। इसके लिए दोनों तरफ से छोले हुए फलक की उपमा देकर बताया है जैसे काष्ठ को दोनों ओर से छीलकर उसका पाटिया-फलक बनाया जाता है, वैसे ही साधक शरीर और कषाय से कृश-दुबला हो जाता है। ऐसे साधक को 'फलगावती ' दी उपमा दी गयी है / 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 232 / 2. "जे खलु भिक्टू बहुस्सुतो बभागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहियलद्धिसंपले खित कालं पुरितं समासज्ज के अयं पुरिसं कं वा बरिसणं अभिसंपण्णे एवं गुणजाईए पभू धम्मस्स भाषवित्तए।" . —ाचारांग चूणि पृ० 67 3. सूत्रकृतांग श्रु० 10 11 गाथा 24 / 4. प्राचा• शीला० टीका पत्रांक 233 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org